Monday, 13 April 2015

संस्कृत से था असीम प्रेमचमू कृष्ण शास्त्री

संस्कृत से था असीम प्रेमचमू कृष्ण शास्त्री

तारीख: 11 Apr 2015 13:28:14


डॉ़ भीमराव आंबेडकर संस्कृत पढ़ना चाहते थे, परन्तु अस्पृश्य होने के कारण किसी संस्कृतज्ञ ने आंबेडकर को संस्कृत पढ़ाने से मना कर दिया- यह विषय तो आंबेडकर के जीवन से सम्बद्घ पुस्तकों में लिखा मिल जाता है, और यह विषय प्रचारित भी हुआ। परन्तु 'भारत की राजभाषा संस्कृत हो' इस प्रकार के प्रस्ताव को संविधान सभा में लाने वाले भी आंबेडकर ही थे। इस प्रस्ताव के लिए हस्ताक्षरकर्ताओं और उपस्थापकों में डॉ़ आंबेडकर अन्यतम थे। यह विषय तो कुछ वर्ष पहले ही प्रकाश में आया, परन्तु अभी एक नया विषय भी सामने आया है।
जब संविधानसभा में राजभाषा के सम्बन्ध में चर्चा हो रही थी तभी डॉ़ आंबेडकर और पण्डित लक्ष्मीकान्त मैत्रा परस्पर संस्कृत में ही वार्तालाप कर रहे थे। यह समाचार 15 सितम्बर,1941 के 'आज' नामक हिन्दी समाचार पत्र में 'डॉ़ आंबेडकर का संस्कृत में वार्तालाप' नाम से छपा था। इससे पहले प्रयाग से प्रकाशित 'दि लीडर' नामक अंग्रेजी समाचार पत्र के मुखपृष्ठ पर 13 सितम्बर,1941 को (ळऌए उडठऋएफ कठ रअठरङफकळ ) जन्म से एक समाचार प्रकाशित हुआ था। दिल्ली के राष्ट्रीय अभिलेखागार में शताधिक वषार्े से संरक्षित पत्रिकाओं और समाचारपत्रों को देखने से यह महत्वपूर्ण समाचार प्राप्त हुआ।
इन नूतन प्राप्त प्रमाणों से स्पष्ट होता है कि डॉ़ आंबेडकर ने केवल संस्कृत को राजभाषा बनाने का समर्थन ही नहीं किया अपितु वे संस्कृत जानते और बोलते भी थे। संविधान सभा में संस्कृत में वार्तालाप करने का उद्देश्य प्रायश: संस्कृत की व्यावहारिकता और सम्भाषणयोग्यता का प्रतिष्ठापन हो सकता है।
संविधान सभा में 'भारत की राजभाषा क्या हो!' इस चर्चा में 'हिन्दी हो, अंग्रेजी हो या फिर संस्कृत' ये तीन वाद ही प्रमुख रूप से प्रचलित थे। कोई प्रादेशिक भाषा राजभाषा हो ऐसा वाद भी उस-उस प्रदेश से सम्बद्घ लोग कर रहे थे। हिन्दी और अंग्रेजी भाषा के समर्थक अधिक थे। इसी कारण से मुंशी-आयंगर-सूत्र (ट४ल्ल२ँ्र क८८ंल्लॅं१-ऋङ्म१े४'ं) के अनुसार 'हिन्दी राजभाषा हो, और अंग्रेजी पन्द्रह वषोंर् तक राजभाषा के रूप में रहेगी' ऐसा विचार किया गया। अगस्त-सितम्बर 1949 में क्या-क्या हुआ इस विषय में अभी और भी अध्ययन करने योग्य अनेक तथ्य हैं। 5अगस्त 1949 में कांग्रेस कार्य समिति ने डॉ़ राजेन्द्र प्रसाद की अध्यक्षता में दो भाषाओं के शिक्षण का निर्णय लिया।
सितम्बर 1949 में भाषा-नीति को लेकर राष्ट्रनायकों के बीच बहुत चर्चा हुई। इंडियन शिड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन की अखिल भारतीय कार्यकारी समिति की गोष्ठी में डॉ़ आंबेडकर ने राजभाषा 'संस्कृत हो' यह प्रस्ताव पारित करने का महान् प्रयत्न किया। परन्तु श्री बी़ पी़ मौर्य आदि युवा कार्यकर्ताओं ने उसका बहुत विरोध किया और सभा त्याग की भी घोषणा कर दी। इस कारण से डॉ़ आंबेडकर ने अपना प्रस्ताव वापस ले लिया। उसके बाद उसी दिन शाम को पत्रकार गोष्ठी बुलाकर उन्होंने अपना विचार व्यक्त किया।
संविधान सभा में कांग्रेस दल के सदस्यों ने भाषानीति के सन्दर्भ में 21,22,23,24,25 सितम्बर,1949 को गोष्ठी की। अन्त में, 25 सितम्बर को मंुशी-आयंगर सूत्र के सन्दर्भ में मतदान किया गया। पक्ष और विपक्ष में 77-77 बराबर मत प्राप्त हुए। 'हिन्दुस्तान' पत्रिका में प्रकाशित तत्कालीन वार्ता के अनुसार मतदान के समय अध्यक्ष पद पर आसीन श्री सत्यनारायणन् ने अपना निर्णायक मत नहीं दिया।
अन्त में यह निर्णय लिया गया कि संविधान सभा में यदि मतदान हो तो सभी अन्त:साक्ष्य अनुसार मतदान करें। 16 सितम्बर,1949 के अंग्रेजी समाचारपत्र ट्रिब्यून में संस्कृत के सन्दर्भ में डठए छअठॠवअॠए विषय के रूप में सम्पादकीय भी छपा।
संविधान सभा में प्रो. निजामुद्दीन मोहम्मद संस्कृत-परक प्रस्ताव के उपस्थापक और प्रमुख थे। उन्होंने संविधानसभा में संस्कृत के पक्ष में भाषण भी दिया। प्रस्ताव के पक्ष में हस्ताक्षर करने वालों में अनेक लोग तमिलनाडु प्रदेशवासी और दक्षिणवासी भी थे। उस समय तमिलनाडु संस्कृत के पक्ष में था।
उन दिनों संस्कृतज्ञों ने भी कुछ प्रयास किए। 25 सितम्बर,1949 को अंग्रेजी समाचार पत्र दि स्टेट्समैन में प्रकाशित वार्ता के अनुसार डॉ़ सारस्वत महोदय की अध्यक्षता में हुई संस्कृतज्ञों की अखिल भारतीय सभा में 'संस्कृत राजभाषा हो' यह अभियाचना की गई । इसी प्रकार वाराणसी में भी कुछ सम्मेलन हुए ।
परन्तु उस समय न तो संस्कृतज्ञों की कोई संगठितशक्ति थी और न ही संस्कृत सम्भाषण करने वाले अधिक मात्रा में थे। इसी कारण से संस्कृत के बारे में नेताओं के मन में कुछ और ही विचार थे तथा भय भी था।
अन्त में संविधान की आठवीं अनुसूची में संस्कृत की प्रविष्टि की गई,राजभाषा हिन्दी के विकास हेतु प्रमुखतया संस्कृत से शब्द लिए जाएंगे, केन्द्र सरकार के विविध विभागों, मन्त्रालयों तथा संस्थानों में ध्येय वाक्य संस्कृत भाषा में हों । इस प्रकार से मानों सांत्वना पुरस्कार प्राप्त कराया गया !
जो कुछ हुआ सो हुआ। आज फिर से, संस्कूत राजभाषा हो यह अकरणीय अभियाचना ही होगी। यदि की भी जाएगी तो यह मूर्खता ही मानी जाएगी। हम सभी कार्यकर्ता इस कार्य को संस्कृत सम्भाषण और संस्कृत प्रचार के माध्यम से प्राप्त कर सकते हैं।
'डॉ़ आंबेडकर संस्कृत में सम्भाषण करते थे'-इस वार्ता के प्रचार से समाज में कुछ तो विचारात्मक आन्दोलन होगा
(लेखक संकृस्तभारती के राष्ट्रीय संयोजक हैं।)

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