समाज को एक करने का संकल्प
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प्रशांत वाजपेई
'तुम चाहते हो कि भारत कश्मीर की सीमाओं की रक्षा करे, सड़कें बनाए, अन्न की आपूर्ति करे और कश्मीर का दर्जा भारत के ही बराबर हो। और भारत सरकार के पास सीमित ताकत हो। भारतीयों के कश्मीर में कोई अधिकार न हों। मैं भारत का विधिमंत्री हूं। मुझे भारत के हितों की रक्षा करनी है। मैं तुम्हारे प्रस्ताव को स्वीकार नहीं कर सकता।' डॉ़ आंबेडकर के ये ठोस शब्द सुनकर शेख अब्दुल्ला का दिल बैठ गया। पंडित नेहरू ने अब्दुल्ला को तत्कालीन विधिमंत्री डॉ़ आंबेडकर के पास भेजा था ताकि धारा 370 के प्रस्ताव को हकीकत में बदला जा सके। शेख अब्दुल्ला ने बातचीत की विफलता की सूचना पं. नेहरू को दी तो नेहरू ने शेख को गोपाल स्वामी आयंगर के पास भेजा। आयंगर ने सरदार पटेल से सहायता की याचना की क्योंकि धारा 370 को नेहरू ने अपनी नाक का सवाल बना लिया था। आखिरकार नेहरू की जिद को रखते हुए धारा 370 के प्रस्ताव को पारित करा लिया गया। अपनी व्यक्तिगत पसंद-नापसंद को आधार बना कर देश के महत्वपूर्ण फैसले करने वाले और नीतियों से ज्यादा व्यक्तित्वों को मान्यता देने वाले नेहरू लार्ड माउंटबेटन और शेख अब्दुल्ला के हाथों में खेल रहे थे। नेहरू की ये मित्रता कश्मीर पर बहुत भारी पड़ी। माउंटबेटन एक असफल कमांडर के रूप में ब्रिटेन लौटे जबकि अगस्त 1953 में शेख अब्दुल्ला की देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तारी हुई। राष्ट्रहित से जुड़े मामलांे पर नेहरू और डॉ़ आंबेडकर अक्सर विरोधी खेमों में दिखते रहे। हालांकि आने वाले समय ने बार-बार आंबेडकर को सही ठहराया। ऐसा क्यों हुआ? दरअसल वे नेहरू की तरह रूमानी नहीं थे। आंबेडकर व्यावहारिकता के कठोर धरातल पर तर्कशील मस्तिष्क के साथ सतर्क कदम बढ़ाने वाले व्यक्ति थे। साथ ही धुर राष्ट्रवादी थे। वे छवि के बंदी नहीं थे। वे तो ध्येय का परछांई की तरह पीछा करने वाले व्यक्ति थे।
स्वतंत्र भारत के साथ दुनिया के बहुत से देशों की सहानुभूति और शुभकामनाएं थीं। परंतु नेहरू जी के नेतृृत्व में भारत की विदेश नीति पर समाजवाद का ठप्पा और अव्यावहारिकता का ग्रहण लग गया। गुट निरपेक्षता के नाम पर हम हितनिरपेक्षता की राह पर बढ़ गए। नेहरू अपने समाजवादी और कम्युनिस्ट राष्ट्राध्यक्ष मित्रों की खुशामद के चक्कर में सदा पश्चिम विरोधी भंगिमा में दिखाई दे़ने लगे। जब भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता थाल में सजाकर भेंट की गई, तब घोर अव्यावहारिकता दिखाते हुए उन्होंने उसे चीन की ओर सरका दिया। डॉ़ आंबेडकर के लिए यह असहनीय था। उनके जीवनी लेखक खैरमोड़े ने उनकी वेदना को उन्हीं के शब्दों में बयान किया है 'भारत को आजादी मिली उस दिन विश्व के देशों से दोस्ती के संबंध थे और वे देश भारत का शुभ चाहते थे। लेकिन आज की स्थिति बिल्कुल विपरीत है। आज भारत का कोई सच्चा दोस्त नहीं है। सभी देश भारत के दुश्मन नहीं हैं, फिर भी भारत से बहुत नाराज हैं। भारत के हितों को वे नहीं देखते। इसका कारण है भारत की लचर विदेश नीति। भारत की कश्मीर के बारे में नीति, राष्ट्रसंघ में चीन के प्रवेश के बारे में जल्दबाजी और कोरियाई युद्घ के बारे में अनास्था के प्रति पिछले तीन वषोंर् में बचकानी नीति के कारण अन्य राष्ट्रों ने भारत की ओर ध्यान देना बंद कर दिया है।' नेहरू चीन के प्रेम में अंधे हो रहे थे। सरदार पटेल की लिखित चेतावनी (1950) पर उन्होंने कान देना भी जरूरी नहीं समझा। पहले उन्होंने तिब्बत पर चीन के स्वामित्व को स्वीकार कर तिब्बत राष्ट्र और भारत के सुरक्षा हितों दोनों की हत्या कर डाली। उसके बाद वे दुनिया में चीन के पोस्टर ब्वॉय बनकर घूमते रहे। इस पर बाबासाहेब ने सवाल उठाया-''चीन का प्रश्न लेकर हमारे संघर्ष करने का क्या कारण है? चीन अपनी लड़ाई लड़ने के लिए समर्थ है। कम्युनिस्ट चीन का समर्थन कर हम अमरीका को क्यों अपना दुश्मन बना रहे हैं?'' उन्होंने नेहरू से प्रश्न किया कि पंूजीवाद का विरोध करते हुए तानाशाही के समर्थन तक जाने की क्या आवश्यकता है? प्रश्न अत्यंत मार्मिक है। क्योंकि जिन नेहरू के सिर पर नेहरूवादी विचारक और वामपंथी लोकतंत्र को मजबूती देने का ताज सजाते आए है, उन्हीं नेहरू को न कभी चीन की बर्बर तानाशाही दिखाई पड़ी, न ही तिब्बतवासियों के मानवाधिकारों की चिंता हुई। वे माओ और चाउ एन लाइ के साथ कबूतर उड़ाते रहे, और माओ करोड़ों चीनियों और तिब्बतियों के खून से होली खेलता रहा। उन्हें चीन पर रत्ती भर विश्वास नहीं था जबकि नेहरू चीन के प्यार में दीवाने हुए जा रहे थे। पंचशील समझौते को लेकर उन्होंने नेहरू पर कटाक्ष किया- ''माओ का पंचशील नेहरू ने गंभीरता से लिया यह देखकर मुझे आश्चर्य हुआ। पंचशील बौद्घ धर्म का अत्यंत महत्वपूर्ण हिस्सा है। माओ का पंचशील पर विश्वास होता तो उसके अपने देश के बौद्घ बंधुओं से उसका अलग बर्ताव होता। राजनीति में पंचशील का कोई काम नहीं है और कम्युनिस्ट राजनीति में तो बिल्कुल नहीं। सभी कम्युनिस्ट देश दो तत्वों को प्रमाण मानते हैं। पहला तत्व यह कि नैतिकता अस्थिर होती है, और दुनिया में नैतिकता कुछ नहीं होती। आज की नैतिकता कल की नैतिकता नहीं होती।'' नेहरू के दिवास्वप्नों का जवाब चीन ने भारत की पीठ में खंजर उतारकर दिया।
भारतीय विदेशनीति के कदम बहकते रहे, और आंबेडकर सावधान करते रहे। स्वेज नहर के निर्माण से भारत और यूरोप के बीच हजारों मील की दूरी घट गई। नेहरू के परम मित्र और मिस्र के राष्ट्रपति नासिर ने अंतर्राष्ट्रीय समुद्री परिवहन के इस मार्ग का राष्ट्रीयकरण कर दिया। विवाद बढ़ने पर अमरीका, इंग्लैण्ड और फ्रांस ने मिस्र पर हमला बोल दिया। नेहरू नासिर के साथ जा खड़े हुए। बाबासाहेब ने इसका विरोध किया। उनका कहना था कि भारत के विदेश व्यापार में इतना महत्व रखने वाली स्वेज नहर, किसी एक देश की नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय नियंत्रण में होनी चाहिए। उनका कहना था कि कल यदि मिस्र और भारत में शत्रुता हो जाती है तब भारत के व्यापार हितों पर गंभीर प्रभाव पड़ सकता है। कम्युनिज्म के अर्थशास्त्र को उन्होंने कभी गंभीरता से नहीं लिया परन्तु वामपंथियों की समाज विभाजनकारी और राष्ट्रघाती नीतियों के कारण बाबासाहेब उस ओर विशेष सतर्कता के हिमायती थे, क्योंकि उन्हें लगता था कि वंचित वर्ग की समस्याओं को सुलझाने के नाम पर वामपंथी उन्हें अपनी हिंसक क्रांति का चारा बना सकते हैं। इस बारे में उनकी सावधानी का पता उनके इस वाक्य से चलता है कि 'वंचित हिन्दू समाज और कम्युनिज्म के बीच में आंबेडकर बाधा हैं।' संभवत: यह भी एक कारण था कि बौद्घ धम्म की शरण गहकर उन्होंने सामाजिक न्याय की लड़ाई को आध्यात्मिकता की शक्ति प्रदान की और उसके पदार्थवादी कम्युनिस्ट सोच की ओर जाने की संभावना ही समाप्त कर दी।
1948 से 1951 और 1951 से 1954 तक चले सत्रों में भारतीय संसद में हिंदू लॉ कमेटी की रपट पर चर्चा हुई। हिन्दू कोड बिल लागू हुआ जिसमें पुराने समय से चले आ रहे तथा पूर्ववर्ती ब्रिटिश शासन द्वारा मान्यता प्राप्त हिंदू परिवार कानून में मूलभूत परिवर्तन किए गए। लेकिन जब शरीयत आधारित और ब्रिटिश शासन द्वारा गढ़े गए मुस्लिम पर्सनल लॉ में भी ऐसे ही बदलावों का विषय उठा तो मुस्लिम प्रतिनिधियों ने आसमान सिर पर उठा लिया। एक देश में दो कानून, एक के लिए एक छड़ी और दूसरे के लिए दूसरी, इस व्यवस्था का डॉ़ श्यामाप्रसाद मुखर्जी, आचार्य कृपलानी और डॉ़ आंबेडकर जैसे राष्ट्रवादियों ने कड़ा विरोध किया। मुस्लिम तुष्टिकरण की इस नेहरूवादी नीति पर सवाल खड़ा करते हुए आंबेडकर ने कहा- 'मैं व्यक्तिगत रूप से यह समझने में असमर्थ हूं कि मज़हब को इतनी विस्तृत अमलदारी क्यों दी जानी चाहिए कि वह सारे जीवन को ही ढक ले और विधायिका को धरातल पर क्रियान्वित होने से रोक दे। आखिरकार हमें (तत्कालीन संसद) यह (कानून बनाने की) छूट क्यों मिली है? हमें यह छूट मिली है अपने सामाजिक तंत्र की असमानताओं और भेद-भावों को दूर करने के लिए, जो हमारे मूलभूत अधिकारों की राह में रोड़ा बने हुए हैं।' समानता का आह्वान करती ये आवाज अनसुनी रह गई। समानता और पंथ निरपेक्षता की संवैधानिक घोषणा के बाद सामाजिक असमानता और मूलभूत अधिकारों के हनन को कानूनी मान्यता देते हुए मुस्लिम पर्सनल लॉ को यथावत् रखा गया और समान नागरिक संहिता के संकल्प को खंडित कर दिया गया। आने वाले दशकों में लाखों शाहबानो और इमरानाओं ने इस पीड़ा को भुगता। आज भी भुगत रही हैं।
जीवनभर डॉ़ आंबेडकर विशुद्घ राष्ट्रवादी एवं अंत:करण से पूर्ण मानवतावादी रहे। देशहित के लिए उन्हें अप्रिय बात बोलने से भी कभी परहेज नहीं रहा। समान नागरिक संहिता की पैरवी के पीछे जहां एक ओर समाज के दोषों के निवारण की आकांक्षा थी, वहीं इस्लामी कट्टरपंथ की रोकथाम और अल्पसंख्यकवाद की विषबेल को प्रारंभ में ही खत्म कर देने की उनकी मंशा छिपी थी। उनकी इस सोच की झलक देती 'बहिष्कृत भारत' के लिए लिखी गई ये पंक्तियां हैं- 'स्वतंत्र हिंदुस्थान पर यदि तुर्की, परशिया अथवा अफगानिस्तान इन तीन मुस्लिम राष्ट्रों में से कोई हमला करता है, तो उस स्थिति में सभी लोग एकजुट होकर इसका मुकाबला करेंगे, इसकी क्या कोई गारंटी दे सकता है? हम तो नहीं दे सकते। हिंदुस्थान के मुस्लिमों का इस्लामी राष्ट्रों के प्रति आकर्षण होना स्वाभाविक है। यह आकर्षण इतना बेशुमार बढ़ चुका है कि इस्लामी संस्कृति का प्रसार कर मुस्लिम राष्ट्रों का संघ बनाकर अधिकाधिक काफिर देशों को उसके शासन में लाने का उनका लक्ष्य बन चुका है। इन विचारों से प्रभावित होने के कारण उनके पैर हिंदुस्थान में और आंखें तुर्कस्थान या अफगानिस्तान की ओर होती हैं। हिंदुस्थान अपना देश है, इसका उन्हें गर्व नहीं हंै और उनके निकटवर्ती हिंदू बंधुओं के प्रति उनका बिल्कुल भी अपनापन नहीं है।' इन पंक्तियों से पता चलता है कि उस समय देश में किस प्रकार का वातावरण बन रहा था।
विश्वभर में घट रही घटनाओं का डॉ़ आंबेडकर निकटता से अध्ययन कर रहे थे। यह वह काल था जब ब्रिटिश शासक अफगानिस्तान और तुर्की में मुस्लिम खलीफाओं और सुल्तानों के विरुद्ध लड़ रहे थे। प्रथम विश्वयुद्घ के पूर्वार्द्ध में तुर्की की इस्लामी खिलाफत ने 15 लाख आर्मेनियाई ईसाइयों को गैर-मुस्लिम होने के अपराध में मौत के घाट उतार दिया था। इस क्रूर और निरंकुश खिलाफत का जब तुर्की के ही प्रगतिशील युवकों ने तख्ता उलट दिया तो इस तख्तापलट के विरोध में भारत में खिलाफत आंदोलन शुरू हुआ। साम्राज्यवाद के विरोध के नाम पर अखिल इस्लामवाद और अल्पसंख्यकवाद बनाम बहुसंख्यकवाद की नींव डाली गई। और देश में सामाजिक सद्भाव की जमीन पर स्थायी दरारें पैदा कर दी गईं। उपनिवेशवाद से लड़ाई के नाम पर मजहबी कट्टरवाद की खेती के घातक परिणामों के बारे में डॉ़ आंबेडकर ने कहा- 'सामाजिक क्रांति करने वाले तुर्कस्थान के कमाल पाशा के बारे में मुझे बहुत आदर व अपनापन लगता है, परंतु हिन्दी मुसलमानों मोहम्मद शौकत अली जैसे देशभक्त व राष्ट्रीय मुसलमानों को कमाल पाशा व अमानुल्ला पसंद नहीं हैं; क्योंकि वे समाज सुधारक हैं, और भारतीय मुसलमानों की मजहबी दृष्टि को समाज सुधार महापाप लगते हैं।' मुस्लिम लीग व अंग्रेजों द्वारा भारतीय मुस्लिमों को 'अजेय वैश्विक इस्लामिक खिलाफत कायम' करने के लिए फुसलाया जा रहा था। कांग्रेस भी दिन पर दिन इस जाल में फंसती जा रही थी। डॉ़ आंबेडकर ने चेताते हुए कहा था- 'इस्लामी भाईचारा विश्वव्यापी भाईचारा नहीं है। वह मुसलमानों का, मुसलमानों को लेकर ही है। उनमें एक बंधुत्व है, लेकिन उसका उपयोग उनकी एकता तक ही सीमित है। जो उसके बाहर हैं उनके लिए उनमें घृणा व शत्रुत्व के अलावा अन्य कुछ नहीं है। इस्लाम एक सच्चे मुसलमान को कभी भारत को अपनी मातृभूमि तथा हिंदू को अपने सगे के रूप में मान्यता नहीं दे सकता। मौलाना मोहम्मद अली एक महान भारतीय व सच्चे मुसलमान थे। इसीलिए संभवत: उन्होंने स्वयं को भारत की अपेक्षा यरुशलम की भूमि में गाड़ा जाना पसंद किया।' चेतावनी अनसुनी रह गईं। वषोंर् पहले से विभाजन की जो खाई दिखाई दे रही थी, तत्कालीन नेतृत्व चाहे अनचाहे उसी ओर खिंचता चला गया। बंटवारा अपरिहार्य हो गया। तो बाबासाहेब ने हिंदू समाज को एक बार फिर चेताया- 'मैं पाकिस्तान में फंसे वंचित समाज से कहना चाहता हूं कि उन्हें जो मिले उस मार्ग व साधन से हिन्दुस्थान आ जाना चाहिए। दूसरी एक बात और कहना है कि पाकिस्तान व हैदराबाद की निजामी रियासत के मुसलमानों अथवा मुस्लिम लीग पर विश्वास रखने से वंचित समाज का नाश होगा। वंचित समाज में एक बुरी बात घर कर गई है कि वह यह मानने लगा है कि हिन्दू समाज अपना तिरस्कार करता है, इस कारण मुसलमान अपना मित्र है। पर यह आदत अत्यंत घातक है। जिन्हें जोर जबरदस्ती से पाकिस्तान अथवा हैदराबाद में इस्लाम की दीक्षा दी गई है, उन्हें मैं यह आश्वासन देता हूं कि कन्वर्जन करने के पूर्व उन्हें जो व्यवहार मिलता था। उसी प्रकार की बंधुत्च की भावना का व्यवहार अपने धर्म में वापस लौटने पर मिलेगा। हिन्दुओं ने उन्हें कितना भी कष्ट दिया तब भी अपना मन कलुषित नहीं करना चाहिए। हैदराबाद के वंचित वर्ग ने निजाम, जो प्रत्यक्ष में हिन्दुस्थान का शत्रु है, का पक्ष लेकर अपने समाज के मुंह पर कालिख नहीं पोतनी चाहिए।' विभाजन के पश्चात् लाखों वंचित हिंदू परिवार पाकिस्तान में ही रह गए। तब से लेकर आज तक उनका नस्लीय संहार जारी है। वे मुस्लिम जमीनदारों के यहां बंधुआ मजदूरी कर रहे हैं। पाकिस्तान में लगभग रोज किसी न किसी हिन्दू लड़की का अपहरण, बलात्कार और जबरन निकाह की घटनाएं घट रही हैं।
अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में डॉ़ आंबेडकर व्यग्र थे। देह छोड़ने के पहले वे वंचित हिंदू समाज को एक दिशा देना चाहते थे। आखिरकार उन्होंने नई उपासना पद्घति अपनाने का निश्चय किया। उनके पीछे आने वाले लाखों अनुयायियों का अनुमान कर ईसाई और मुस्लिम मिशनरियों की कन्वर्जन की भूख भड़क उठी। ईसाई मिशनरी सदियों से भारतीय समाज की देहरी पर सिर पटककर भी कुछ खास हासिल न कर सके थे। दूसरी तरफ इस्लाम के ठेकेदारों को भी इस संभावित पुरस्कार से बड़ी आशाएं लग गई थीं। बाबासाहेब के जीवनी लेखकों धनंजय कीर और खैरमोड़े ने विस्तार से बताया है कि कैसे उस समय हैदराबाद के निज़ाम, आगा खां से लेकर ईसाई मिशनरी तक सभी बाबासाहेब की राह में पलक पांवड़े बिछाने को तैयार थे लेकिन इस बारे में बाबासाहेब की सोच बिल्कुल साफ थी। उन्होंने कहा- 'अस्पृश्यों के कन्वर्जन के कारण सर्वसाधारण से देश पर क्या परिणाम होगा, यह ध्यान में रखना चाहिए। यदि ये लोग मुसलमान अथवा ईसाई पंथ में जाते हैं तो अस्पृश्य लोग अराष्ट्रीय हो जाएंगे। यदि वे मुसलमान होते हैं तो मुसलमानों की संख्या दुगुनी हो जाएगी व तब मुसलमानों का वर्चस्व बढ़ जाएगा। यदि ये लोग ईसाई होते हैं तो ईसाइयों की संख्या 5-6 करोड़ हो जाएगी और उससे इस देश पर ब्रिटिश सत्ता की पकड़ मजबूत होने में सहायता होगी।'
ईसाई मिशनरियों द्वारा किए जा रहे सामाजिक न्याय के आसमानी दावों की कलई खोलते हुए उन्होंने कहा ईसाइयत ग्रहण करने से उनके आंदोलन का उद्देश्य साध्य नहीं होगा। अस्पृश्य समाज को भेद-भाव की मनोवृत्ति नष्ट करनी है। ईसाई हो जाने से यह पद्घति एवं मनोवृत्ति नष्ट नहीं होती। हिंदू समाज की तरह ईसाई समाज भी जाति ग्रस्त है।
बौद्घ धम्म को स्वीकार करने के पीछे का कारण बताते हुए वे कहते हैं-'एक बार मैं अस्पृश्यों के बारे में गांधीजी से चर्चा कर रहा था। तब मैंने कहा था कि 'अस्पृश्यता के सवाल पर मेरे आप से भेद हैं, फिर भी जब अवसर आएगा, तब मैं उस मार्ग को स्वीकार करूंगा जिससे इस देश को कम से कम धक्का लगे। इसलिए बौद्घ धर्म स्वीकार कर इस देश का अधिकतम हित साध रहा हूं, क्योंकि बौद्घ धर्म भारतीय संस्कृति का ही एक भाग है, मैंने इस बात की सावधानी रखी है कि इस देश की संस्कृति व इतिहास की परंपरा को धक्का न लगे।'
बुद्घ के चरणों में बैठने के पश्चात् उन्होंने जो भाषण दिया उसमें हिंदू संस्कृति के प्रति उनकी संकल्पना के दर्शन होते हैं। उन्होंने कहा- 'अंतत: सारी जिम्मेदारी आपकी ही है। मैंने धर्मान्तरण करने का निश्चय किया है। मैं आपके धर्म से बाहर हो गया हूं। फिर भी आपकी सारी हलचलों का सक्रिय सहानुभूति से निरीक्षण करता रहूंगा व आवश्यकता पड़ने पर सहायता भी करता रहूंगा। हिन्दू संगठन राष्ट्रीय कार्य है, वह स्वराज्य से भी अधिक महत्व का है। स्वराज्य का संरक्षण नहीं किया तो क्या उपयोग? स्वराज्य के रक्षण से भी स्वराज्य के हिन्दुओं का संरक्षण करना अधिक महत्व का है। हिन्दुओं में सामर्थ्य नहीं होगा तो स्वराज्य का रूपांतर दासता में हो जाएगा। तब मेरी राम राम! आपको यश प्राप्त हो, इस निमित्त मेरी शुभेच्छा।'
डॉ. आंबेडकर की लेखनी सदा देश की समस्याओं के समाधान ढूंढती रही। जो अखबार उन्होंने निकाले वे सब समाज केंद्रित थे। जो पुस्तकें उन्होंने लिखीं वह प्राय: राष्ट्रीय प्रश्नों पर उनके मंथन का निचोड़ हैं। देश विभाजन पर लिखी उनकी किताब उस समय के राष्ट्रीय परिदृश्य का चित्रण करती है साथ ही अतीत में गोता लगाकर इतिहास की सीख को भी सामने रखती है। वहीं दूसरी ओर उनकी रचना 'शूद्र कौन थे' हिन्दू समाज को उसकी जड़ांें की गहराई तक ले जाकर वहां से बह रही समरसता की धारा से परिचित करवाती है। इस पुस्तक में बाबासाहेब ने ब्रिटिश इतिहासकारों द्वारा फैलाये गए इस झूठ कि 'आर्य भारत में बाहर से आए हुए हमलावर थे' का मुंहतोड़ उत्तर दिया है और शास्त्र प्रमाण से ये सिद्घ किया है कि आर्य भारत के ही मूल निवासी थे। आर्य गुणसूचक शब्द है जाति सूचक कदापि नहीं है। और वेदों में जिन्हें शूद्र कहा गया है वे तत्कालीन समाज का अत्यंत महत्वपूर्ण, सम्माननीय और समृद्घ घटक थे।
इन सारी बातों पर निगाह डालते हैं तो ध्यान में आता है कि बाबासाहेब आंबेडकर का सारा जीवन राष्ट्रवाद की अनथक गाथा है। सारा जीवन वे राष्ट्र के लिए लड़ते रहे। उन्होंने राष्ट्र की ये लड़ाई सामाजिक स्तर पर, राजनीतिक स्तर पर, वैचारिक स्तर पर और सांस्कृतिक स्तर पर लड़ी। इस मंथन में से जो विष निकला उसे वे चुपचाप पी गए, और जो अमृत निकला उसे समाज में बांट दिया। किसी अवसर पर उन्होंने कहा था कि 'मेरी आलोचना में यह कहा जाता है कि मैं हिन्दू धर्म का शत्रु हूं, विध्वंसक हूं। लेकिन एक दिन ऐसा आयेगा, जब लोग यह अनुभव करेंगे कि मैं हिन्दू समाज का उपकारकर्ता हूं और तब वे मुझे धन्यवाद देंगे।' वह दिन आ गया है।
'सिफारिश नहीं करूंगा'
बाबासाहेब उन दिनों भारत के कानून मंत्री थे। उनका बेटा यशवंत, जिन्हें भैयासाहब के नाम से स्मरण किया जाता है, मुंबई से दो उद्योगपतियों को लेकर दिल्ली उनसे मिलने पहुंचा। उद्योगपतियों के निजी कार्य के लिए यशवंत अपने पिता की सिफारिश चाहता था। उसकी बात सुनकर बाबासाहेब फट पड़े। सबके सामने ही निर्ममता के साथ फटकारते हुए उन्होंने कहा -'मूर्ख!तूने सोचा भी कैसे कि मैं तेरे कहने से किसी के लिए सिफारिश करूंगा? मैं यहां तेरा बाप नहीं, भारत का विधिमंत्री हूं। बाप हूं बम्बई के राजगृह (बाबासाहेब के निवास का नाम) में। बिना देर किये निकल जा मेरे कमरे से।' यशवंत को काटो तो खून नहीं। वह अपना सा मुंह लेकर उद्योगपतियों के साथ वापस लौट गया। इस घटना के बाद बाप-बेटे के रिश्ते सदा के लिए ठंडे पड़ गए। यहां यह स्मरण रहे कि यशवंत बाबासाहेब की पांच संतानों में से एकमात्र जीवित बचा पुत्र था। डॉ. आंबेडकर के तीन पुत्र और एक पुत्री छुटपन में ही काल-कवलित हो गए थे। स्वाभाविक ही बाबासाहेब में उसके प्रति पर्याप्त मोह रहा होगा। पर उनकी कर्तव्य-परायणता अधिक कठोर थी।
'गुरुता का वंदन'
यह सब लोग जानते हैं कि भीमराव को बाल्यकाल में आंबेडकर उपनाम उनके एक ब्राह्मण अध्यापक ने दिया था ताकि बालक को सामाजिक भेदभाव अधिक न झेलना पड़े। इसीलिए काफी लोग उन्हें बहुत समय तक ब्राह्मण ही समझते रहे। बाबासाहेब ने जब बड़े होकर अत्यधिक सामाजिक प्रतिष्ठा हासिल कर ली, उसके बाद की घटना है। बाबासाहेब मुंबई में दामोदर हॉल के निकट स्थित अपने कार्यालय में काफी अनुयाइयों के साथ बैठे थे। तभी उन आंबेडकर गुरूजी का वहां आगमन हो गया। वे वयोवृद्घ हो चुके थे। पर बाबासाहेब उनको देखते ही पहचान गए। भाव-विह्वल होकर उन्होंने भूमि पर लेटकर उन्हें साष्टांग प्रणाम किया। यही नहीं, वस्त्र आदि देकर उनका सम्मान भी किया। आंबेडकर गुरूजी अपने इस दिग्विजयी शिष्य की शिष्टता देखकर भाव-विभोर हो गए।
प्रस्तुति : अजय मित्तल
'तुम चाहते हो कि भारत कश्मीर की सीमाओं की रक्षा करे, सड़कें बनाए, अन्न की आपूर्ति करे और कश्मीर का दर्जा भारत के ही बराबर हो। और भारत सरकार के पास सीमित ताकत हो। भारतीयों के कश्मीर में कोई अधिकार न हों। मैं भारत का विधिमंत्री हूं। मुझे भारत के हितों की रक्षा करनी है। मैं तुम्हारे प्रस्ताव को स्वीकार नहीं कर सकता।' डॉ़ आंबेडकर के ये ठोस शब्द सुनकर शेख अब्दुल्ला का दिल बैठ गया। पंडित नेहरू ने अब्दुल्ला को तत्कालीन विधिमंत्री डॉ़ आंबेडकर के पास भेजा था ताकि धारा 370 के प्रस्ताव को हकीकत में बदला जा सके। शेख अब्दुल्ला ने बातचीत की विफलता की सूचना पं. नेहरू को दी तो नेहरू ने शेख को गोपाल स्वामी आयंगर के पास भेजा। आयंगर ने सरदार पटेल से सहायता की याचना की क्योंकि धारा 370 को नेहरू ने अपनी नाक का सवाल बना लिया था। आखिरकार नेहरू की जिद को रखते हुए धारा 370 के प्रस्ताव को पारित करा लिया गया। अपनी व्यक्तिगत पसंद-नापसंद को आधार बना कर देश के महत्वपूर्ण फैसले करने वाले और नीतियों से ज्यादा व्यक्तित्वों को मान्यता देने वाले नेहरू लार्ड माउंटबेटन और शेख अब्दुल्ला के हाथों में खेल रहे थे। नेहरू की ये मित्रता कश्मीर पर बहुत भारी पड़ी। माउंटबेटन एक असफल कमांडर के रूप में ब्रिटेन लौटे जबकि अगस्त 1953 में शेख अब्दुल्ला की देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तारी हुई। राष्ट्रहित से जुड़े मामलांे पर नेहरू और डॉ़ आंबेडकर अक्सर विरोधी खेमों में दिखते रहे। हालांकि आने वाले समय ने बार-बार आंबेडकर को सही ठहराया। ऐसा क्यों हुआ? दरअसल वे नेहरू की तरह रूमानी नहीं थे। आंबेडकर व्यावहारिकता के कठोर धरातल पर तर्कशील मस्तिष्क के साथ सतर्क कदम बढ़ाने वाले व्यक्ति थे। साथ ही धुर राष्ट्रवादी थे। वे छवि के बंदी नहीं थे। वे तो ध्येय का परछांई की तरह पीछा करने वाले व्यक्ति थे।
स्वतंत्र भारत के साथ दुनिया के बहुत से देशों की सहानुभूति और शुभकामनाएं थीं। परंतु नेहरू जी के नेतृृत्व में भारत की विदेश नीति पर समाजवाद का ठप्पा और अव्यावहारिकता का ग्रहण लग गया। गुट निरपेक्षता के नाम पर हम हितनिरपेक्षता की राह पर बढ़ गए। नेहरू अपने समाजवादी और कम्युनिस्ट राष्ट्राध्यक्ष मित्रों की खुशामद के चक्कर में सदा पश्चिम विरोधी भंगिमा में दिखाई दे़ने लगे। जब भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता थाल में सजाकर भेंट की गई, तब घोर अव्यावहारिकता दिखाते हुए उन्होंने उसे चीन की ओर सरका दिया। डॉ़ आंबेडकर के लिए यह असहनीय था। उनके जीवनी लेखक खैरमोड़े ने उनकी वेदना को उन्हीं के शब्दों में बयान किया है 'भारत को आजादी मिली उस दिन विश्व के देशों से दोस्ती के संबंध थे और वे देश भारत का शुभ चाहते थे। लेकिन आज की स्थिति बिल्कुल विपरीत है। आज भारत का कोई सच्चा दोस्त नहीं है। सभी देश भारत के दुश्मन नहीं हैं, फिर भी भारत से बहुत नाराज हैं। भारत के हितों को वे नहीं देखते। इसका कारण है भारत की लचर विदेश नीति। भारत की कश्मीर के बारे में नीति, राष्ट्रसंघ में चीन के प्रवेश के बारे में जल्दबाजी और कोरियाई युद्घ के बारे में अनास्था के प्रति पिछले तीन वषोंर् में बचकानी नीति के कारण अन्य राष्ट्रों ने भारत की ओर ध्यान देना बंद कर दिया है।' नेहरू चीन के प्रेम में अंधे हो रहे थे। सरदार पटेल की लिखित चेतावनी (1950) पर उन्होंने कान देना भी जरूरी नहीं समझा। पहले उन्होंने तिब्बत पर चीन के स्वामित्व को स्वीकार कर तिब्बत राष्ट्र और भारत के सुरक्षा हितों दोनों की हत्या कर डाली। उसके बाद वे दुनिया में चीन के पोस्टर ब्वॉय बनकर घूमते रहे। इस पर बाबासाहेब ने सवाल उठाया-''चीन का प्रश्न लेकर हमारे संघर्ष करने का क्या कारण है? चीन अपनी लड़ाई लड़ने के लिए समर्थ है। कम्युनिस्ट चीन का समर्थन कर हम अमरीका को क्यों अपना दुश्मन बना रहे हैं?'' उन्होंने नेहरू से प्रश्न किया कि पंूजीवाद का विरोध करते हुए तानाशाही के समर्थन तक जाने की क्या आवश्यकता है? प्रश्न अत्यंत मार्मिक है। क्योंकि जिन नेहरू के सिर पर नेहरूवादी विचारक और वामपंथी लोकतंत्र को मजबूती देने का ताज सजाते आए है, उन्हीं नेहरू को न कभी चीन की बर्बर तानाशाही दिखाई पड़ी, न ही तिब्बतवासियों के मानवाधिकारों की चिंता हुई। वे माओ और चाउ एन लाइ के साथ कबूतर उड़ाते रहे, और माओ करोड़ों चीनियों और तिब्बतियों के खून से होली खेलता रहा। उन्हें चीन पर रत्ती भर विश्वास नहीं था जबकि नेहरू चीन के प्यार में दीवाने हुए जा रहे थे। पंचशील समझौते को लेकर उन्होंने नेहरू पर कटाक्ष किया- ''माओ का पंचशील नेहरू ने गंभीरता से लिया यह देखकर मुझे आश्चर्य हुआ। पंचशील बौद्घ धर्म का अत्यंत महत्वपूर्ण हिस्सा है। माओ का पंचशील पर विश्वास होता तो उसके अपने देश के बौद्घ बंधुओं से उसका अलग बर्ताव होता। राजनीति में पंचशील का कोई काम नहीं है और कम्युनिस्ट राजनीति में तो बिल्कुल नहीं। सभी कम्युनिस्ट देश दो तत्वों को प्रमाण मानते हैं। पहला तत्व यह कि नैतिकता अस्थिर होती है, और दुनिया में नैतिकता कुछ नहीं होती। आज की नैतिकता कल की नैतिकता नहीं होती।'' नेहरू के दिवास्वप्नों का जवाब चीन ने भारत की पीठ में खंजर उतारकर दिया।
भारतीय विदेशनीति के कदम बहकते रहे, और आंबेडकर सावधान करते रहे। स्वेज नहर के निर्माण से भारत और यूरोप के बीच हजारों मील की दूरी घट गई। नेहरू के परम मित्र और मिस्र के राष्ट्रपति नासिर ने अंतर्राष्ट्रीय समुद्री परिवहन के इस मार्ग का राष्ट्रीयकरण कर दिया। विवाद बढ़ने पर अमरीका, इंग्लैण्ड और फ्रांस ने मिस्र पर हमला बोल दिया। नेहरू नासिर के साथ जा खड़े हुए। बाबासाहेब ने इसका विरोध किया। उनका कहना था कि भारत के विदेश व्यापार में इतना महत्व रखने वाली स्वेज नहर, किसी एक देश की नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय नियंत्रण में होनी चाहिए। उनका कहना था कि कल यदि मिस्र और भारत में शत्रुता हो जाती है तब भारत के व्यापार हितों पर गंभीर प्रभाव पड़ सकता है। कम्युनिज्म के अर्थशास्त्र को उन्होंने कभी गंभीरता से नहीं लिया परन्तु वामपंथियों की समाज विभाजनकारी और राष्ट्रघाती नीतियों के कारण बाबासाहेब उस ओर विशेष सतर्कता के हिमायती थे, क्योंकि उन्हें लगता था कि वंचित वर्ग की समस्याओं को सुलझाने के नाम पर वामपंथी उन्हें अपनी हिंसक क्रांति का चारा बना सकते हैं। इस बारे में उनकी सावधानी का पता उनके इस वाक्य से चलता है कि 'वंचित हिन्दू समाज और कम्युनिज्म के बीच में आंबेडकर बाधा हैं।' संभवत: यह भी एक कारण था कि बौद्घ धम्म की शरण गहकर उन्होंने सामाजिक न्याय की लड़ाई को आध्यात्मिकता की शक्ति प्रदान की और उसके पदार्थवादी कम्युनिस्ट सोच की ओर जाने की संभावना ही समाप्त कर दी।
1948 से 1951 और 1951 से 1954 तक चले सत्रों में भारतीय संसद में हिंदू लॉ कमेटी की रपट पर चर्चा हुई। हिन्दू कोड बिल लागू हुआ जिसमें पुराने समय से चले आ रहे तथा पूर्ववर्ती ब्रिटिश शासन द्वारा मान्यता प्राप्त हिंदू परिवार कानून में मूलभूत परिवर्तन किए गए। लेकिन जब शरीयत आधारित और ब्रिटिश शासन द्वारा गढ़े गए मुस्लिम पर्सनल लॉ में भी ऐसे ही बदलावों का विषय उठा तो मुस्लिम प्रतिनिधियों ने आसमान सिर पर उठा लिया। एक देश में दो कानून, एक के लिए एक छड़ी और दूसरे के लिए दूसरी, इस व्यवस्था का डॉ़ श्यामाप्रसाद मुखर्जी, आचार्य कृपलानी और डॉ़ आंबेडकर जैसे राष्ट्रवादियों ने कड़ा विरोध किया। मुस्लिम तुष्टिकरण की इस नेहरूवादी नीति पर सवाल खड़ा करते हुए आंबेडकर ने कहा- 'मैं व्यक्तिगत रूप से यह समझने में असमर्थ हूं कि मज़हब को इतनी विस्तृत अमलदारी क्यों दी जानी चाहिए कि वह सारे जीवन को ही ढक ले और विधायिका को धरातल पर क्रियान्वित होने से रोक दे। आखिरकार हमें (तत्कालीन संसद) यह (कानून बनाने की) छूट क्यों मिली है? हमें यह छूट मिली है अपने सामाजिक तंत्र की असमानताओं और भेद-भावों को दूर करने के लिए, जो हमारे मूलभूत अधिकारों की राह में रोड़ा बने हुए हैं।' समानता का आह्वान करती ये आवाज अनसुनी रह गई। समानता और पंथ निरपेक्षता की संवैधानिक घोषणा के बाद सामाजिक असमानता और मूलभूत अधिकारों के हनन को कानूनी मान्यता देते हुए मुस्लिम पर्सनल लॉ को यथावत् रखा गया और समान नागरिक संहिता के संकल्प को खंडित कर दिया गया। आने वाले दशकों में लाखों शाहबानो और इमरानाओं ने इस पीड़ा को भुगता। आज भी भुगत रही हैं।
जीवनभर डॉ़ आंबेडकर विशुद्घ राष्ट्रवादी एवं अंत:करण से पूर्ण मानवतावादी रहे। देशहित के लिए उन्हें अप्रिय बात बोलने से भी कभी परहेज नहीं रहा। समान नागरिक संहिता की पैरवी के पीछे जहां एक ओर समाज के दोषों के निवारण की आकांक्षा थी, वहीं इस्लामी कट्टरपंथ की रोकथाम और अल्पसंख्यकवाद की विषबेल को प्रारंभ में ही खत्म कर देने की उनकी मंशा छिपी थी। उनकी इस सोच की झलक देती 'बहिष्कृत भारत' के लिए लिखी गई ये पंक्तियां हैं- 'स्वतंत्र हिंदुस्थान पर यदि तुर्की, परशिया अथवा अफगानिस्तान इन तीन मुस्लिम राष्ट्रों में से कोई हमला करता है, तो उस स्थिति में सभी लोग एकजुट होकर इसका मुकाबला करेंगे, इसकी क्या कोई गारंटी दे सकता है? हम तो नहीं दे सकते। हिंदुस्थान के मुस्लिमों का इस्लामी राष्ट्रों के प्रति आकर्षण होना स्वाभाविक है। यह आकर्षण इतना बेशुमार बढ़ चुका है कि इस्लामी संस्कृति का प्रसार कर मुस्लिम राष्ट्रों का संघ बनाकर अधिकाधिक काफिर देशों को उसके शासन में लाने का उनका लक्ष्य बन चुका है। इन विचारों से प्रभावित होने के कारण उनके पैर हिंदुस्थान में और आंखें तुर्कस्थान या अफगानिस्तान की ओर होती हैं। हिंदुस्थान अपना देश है, इसका उन्हें गर्व नहीं हंै और उनके निकटवर्ती हिंदू बंधुओं के प्रति उनका बिल्कुल भी अपनापन नहीं है।' इन पंक्तियों से पता चलता है कि उस समय देश में किस प्रकार का वातावरण बन रहा था।
विश्वभर में घट रही घटनाओं का डॉ़ आंबेडकर निकटता से अध्ययन कर रहे थे। यह वह काल था जब ब्रिटिश शासक अफगानिस्तान और तुर्की में मुस्लिम खलीफाओं और सुल्तानों के विरुद्ध लड़ रहे थे। प्रथम विश्वयुद्घ के पूर्वार्द्ध में तुर्की की इस्लामी खिलाफत ने 15 लाख आर्मेनियाई ईसाइयों को गैर-मुस्लिम होने के अपराध में मौत के घाट उतार दिया था। इस क्रूर और निरंकुश खिलाफत का जब तुर्की के ही प्रगतिशील युवकों ने तख्ता उलट दिया तो इस तख्तापलट के विरोध में भारत में खिलाफत आंदोलन शुरू हुआ। साम्राज्यवाद के विरोध के नाम पर अखिल इस्लामवाद और अल्पसंख्यकवाद बनाम बहुसंख्यकवाद की नींव डाली गई। और देश में सामाजिक सद्भाव की जमीन पर स्थायी दरारें पैदा कर दी गईं। उपनिवेशवाद से लड़ाई के नाम पर मजहबी कट्टरवाद की खेती के घातक परिणामों के बारे में डॉ़ आंबेडकर ने कहा- 'सामाजिक क्रांति करने वाले तुर्कस्थान के कमाल पाशा के बारे में मुझे बहुत आदर व अपनापन लगता है, परंतु हिन्दी मुसलमानों मोहम्मद शौकत अली जैसे देशभक्त व राष्ट्रीय मुसलमानों को कमाल पाशा व अमानुल्ला पसंद नहीं हैं; क्योंकि वे समाज सुधारक हैं, और भारतीय मुसलमानों की मजहबी दृष्टि को समाज सुधार महापाप लगते हैं।' मुस्लिम लीग व अंग्रेजों द्वारा भारतीय मुस्लिमों को 'अजेय वैश्विक इस्लामिक खिलाफत कायम' करने के लिए फुसलाया जा रहा था। कांग्रेस भी दिन पर दिन इस जाल में फंसती जा रही थी। डॉ़ आंबेडकर ने चेताते हुए कहा था- 'इस्लामी भाईचारा विश्वव्यापी भाईचारा नहीं है। वह मुसलमानों का, मुसलमानों को लेकर ही है। उनमें एक बंधुत्व है, लेकिन उसका उपयोग उनकी एकता तक ही सीमित है। जो उसके बाहर हैं उनके लिए उनमें घृणा व शत्रुत्व के अलावा अन्य कुछ नहीं है। इस्लाम एक सच्चे मुसलमान को कभी भारत को अपनी मातृभूमि तथा हिंदू को अपने सगे के रूप में मान्यता नहीं दे सकता। मौलाना मोहम्मद अली एक महान भारतीय व सच्चे मुसलमान थे। इसीलिए संभवत: उन्होंने स्वयं को भारत की अपेक्षा यरुशलम की भूमि में गाड़ा जाना पसंद किया।' चेतावनी अनसुनी रह गईं। वषोंर् पहले से विभाजन की जो खाई दिखाई दे रही थी, तत्कालीन नेतृत्व चाहे अनचाहे उसी ओर खिंचता चला गया। बंटवारा अपरिहार्य हो गया। तो बाबासाहेब ने हिंदू समाज को एक बार फिर चेताया- 'मैं पाकिस्तान में फंसे वंचित समाज से कहना चाहता हूं कि उन्हें जो मिले उस मार्ग व साधन से हिन्दुस्थान आ जाना चाहिए। दूसरी एक बात और कहना है कि पाकिस्तान व हैदराबाद की निजामी रियासत के मुसलमानों अथवा मुस्लिम लीग पर विश्वास रखने से वंचित समाज का नाश होगा। वंचित समाज में एक बुरी बात घर कर गई है कि वह यह मानने लगा है कि हिन्दू समाज अपना तिरस्कार करता है, इस कारण मुसलमान अपना मित्र है। पर यह आदत अत्यंत घातक है। जिन्हें जोर जबरदस्ती से पाकिस्तान अथवा हैदराबाद में इस्लाम की दीक्षा दी गई है, उन्हें मैं यह आश्वासन देता हूं कि कन्वर्जन करने के पूर्व उन्हें जो व्यवहार मिलता था। उसी प्रकार की बंधुत्च की भावना का व्यवहार अपने धर्म में वापस लौटने पर मिलेगा। हिन्दुओं ने उन्हें कितना भी कष्ट दिया तब भी अपना मन कलुषित नहीं करना चाहिए। हैदराबाद के वंचित वर्ग ने निजाम, जो प्रत्यक्ष में हिन्दुस्थान का शत्रु है, का पक्ष लेकर अपने समाज के मुंह पर कालिख नहीं पोतनी चाहिए।' विभाजन के पश्चात् लाखों वंचित हिंदू परिवार पाकिस्तान में ही रह गए। तब से लेकर आज तक उनका नस्लीय संहार जारी है। वे मुस्लिम जमीनदारों के यहां बंधुआ मजदूरी कर रहे हैं। पाकिस्तान में लगभग रोज किसी न किसी हिन्दू लड़की का अपहरण, बलात्कार और जबरन निकाह की घटनाएं घट रही हैं।
अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में डॉ़ आंबेडकर व्यग्र थे। देह छोड़ने के पहले वे वंचित हिंदू समाज को एक दिशा देना चाहते थे। आखिरकार उन्होंने नई उपासना पद्घति अपनाने का निश्चय किया। उनके पीछे आने वाले लाखों अनुयायियों का अनुमान कर ईसाई और मुस्लिम मिशनरियों की कन्वर्जन की भूख भड़क उठी। ईसाई मिशनरी सदियों से भारतीय समाज की देहरी पर सिर पटककर भी कुछ खास हासिल न कर सके थे। दूसरी तरफ इस्लाम के ठेकेदारों को भी इस संभावित पुरस्कार से बड़ी आशाएं लग गई थीं। बाबासाहेब के जीवनी लेखकों धनंजय कीर और खैरमोड़े ने विस्तार से बताया है कि कैसे उस समय हैदराबाद के निज़ाम, आगा खां से लेकर ईसाई मिशनरी तक सभी बाबासाहेब की राह में पलक पांवड़े बिछाने को तैयार थे लेकिन इस बारे में बाबासाहेब की सोच बिल्कुल साफ थी। उन्होंने कहा- 'अस्पृश्यों के कन्वर्जन के कारण सर्वसाधारण से देश पर क्या परिणाम होगा, यह ध्यान में रखना चाहिए। यदि ये लोग मुसलमान अथवा ईसाई पंथ में जाते हैं तो अस्पृश्य लोग अराष्ट्रीय हो जाएंगे। यदि वे मुसलमान होते हैं तो मुसलमानों की संख्या दुगुनी हो जाएगी व तब मुसलमानों का वर्चस्व बढ़ जाएगा। यदि ये लोग ईसाई होते हैं तो ईसाइयों की संख्या 5-6 करोड़ हो जाएगी और उससे इस देश पर ब्रिटिश सत्ता की पकड़ मजबूत होने में सहायता होगी।'
ईसाई मिशनरियों द्वारा किए जा रहे सामाजिक न्याय के आसमानी दावों की कलई खोलते हुए उन्होंने कहा ईसाइयत ग्रहण करने से उनके आंदोलन का उद्देश्य साध्य नहीं होगा। अस्पृश्य समाज को भेद-भाव की मनोवृत्ति नष्ट करनी है। ईसाई हो जाने से यह पद्घति एवं मनोवृत्ति नष्ट नहीं होती। हिंदू समाज की तरह ईसाई समाज भी जाति ग्रस्त है।
बौद्घ धम्म को स्वीकार करने के पीछे का कारण बताते हुए वे कहते हैं-'एक बार मैं अस्पृश्यों के बारे में गांधीजी से चर्चा कर रहा था। तब मैंने कहा था कि 'अस्पृश्यता के सवाल पर मेरे आप से भेद हैं, फिर भी जब अवसर आएगा, तब मैं उस मार्ग को स्वीकार करूंगा जिससे इस देश को कम से कम धक्का लगे। इसलिए बौद्घ धर्म स्वीकार कर इस देश का अधिकतम हित साध रहा हूं, क्योंकि बौद्घ धर्म भारतीय संस्कृति का ही एक भाग है, मैंने इस बात की सावधानी रखी है कि इस देश की संस्कृति व इतिहास की परंपरा को धक्का न लगे।'
बुद्घ के चरणों में बैठने के पश्चात् उन्होंने जो भाषण दिया उसमें हिंदू संस्कृति के प्रति उनकी संकल्पना के दर्शन होते हैं। उन्होंने कहा- 'अंतत: सारी जिम्मेदारी आपकी ही है। मैंने धर्मान्तरण करने का निश्चय किया है। मैं आपके धर्म से बाहर हो गया हूं। फिर भी आपकी सारी हलचलों का सक्रिय सहानुभूति से निरीक्षण करता रहूंगा व आवश्यकता पड़ने पर सहायता भी करता रहूंगा। हिन्दू संगठन राष्ट्रीय कार्य है, वह स्वराज्य से भी अधिक महत्व का है। स्वराज्य का संरक्षण नहीं किया तो क्या उपयोग? स्वराज्य के रक्षण से भी स्वराज्य के हिन्दुओं का संरक्षण करना अधिक महत्व का है। हिन्दुओं में सामर्थ्य नहीं होगा तो स्वराज्य का रूपांतर दासता में हो जाएगा। तब मेरी राम राम! आपको यश प्राप्त हो, इस निमित्त मेरी शुभेच्छा।'
डॉ. आंबेडकर की लेखनी सदा देश की समस्याओं के समाधान ढूंढती रही। जो अखबार उन्होंने निकाले वे सब समाज केंद्रित थे। जो पुस्तकें उन्होंने लिखीं वह प्राय: राष्ट्रीय प्रश्नों पर उनके मंथन का निचोड़ हैं। देश विभाजन पर लिखी उनकी किताब उस समय के राष्ट्रीय परिदृश्य का चित्रण करती है साथ ही अतीत में गोता लगाकर इतिहास की सीख को भी सामने रखती है। वहीं दूसरी ओर उनकी रचना 'शूद्र कौन थे' हिन्दू समाज को उसकी जड़ांें की गहराई तक ले जाकर वहां से बह रही समरसता की धारा से परिचित करवाती है। इस पुस्तक में बाबासाहेब ने ब्रिटिश इतिहासकारों द्वारा फैलाये गए इस झूठ कि 'आर्य भारत में बाहर से आए हुए हमलावर थे' का मुंहतोड़ उत्तर दिया है और शास्त्र प्रमाण से ये सिद्घ किया है कि आर्य भारत के ही मूल निवासी थे। आर्य गुणसूचक शब्द है जाति सूचक कदापि नहीं है। और वेदों में जिन्हें शूद्र कहा गया है वे तत्कालीन समाज का अत्यंत महत्वपूर्ण, सम्माननीय और समृद्घ घटक थे।
इन सारी बातों पर निगाह डालते हैं तो ध्यान में आता है कि बाबासाहेब आंबेडकर का सारा जीवन राष्ट्रवाद की अनथक गाथा है। सारा जीवन वे राष्ट्र के लिए लड़ते रहे। उन्होंने राष्ट्र की ये लड़ाई सामाजिक स्तर पर, राजनीतिक स्तर पर, वैचारिक स्तर पर और सांस्कृतिक स्तर पर लड़ी। इस मंथन में से जो विष निकला उसे वे चुपचाप पी गए, और जो अमृत निकला उसे समाज में बांट दिया। किसी अवसर पर उन्होंने कहा था कि 'मेरी आलोचना में यह कहा जाता है कि मैं हिन्दू धर्म का शत्रु हूं, विध्वंसक हूं। लेकिन एक दिन ऐसा आयेगा, जब लोग यह अनुभव करेंगे कि मैं हिन्दू समाज का उपकारकर्ता हूं और तब वे मुझे धन्यवाद देंगे।' वह दिन आ गया है।
'सिफारिश नहीं करूंगा'
बाबासाहेब उन दिनों भारत के कानून मंत्री थे। उनका बेटा यशवंत, जिन्हें भैयासाहब के नाम से स्मरण किया जाता है, मुंबई से दो उद्योगपतियों को लेकर दिल्ली उनसे मिलने पहुंचा। उद्योगपतियों के निजी कार्य के लिए यशवंत अपने पिता की सिफारिश चाहता था। उसकी बात सुनकर बाबासाहेब फट पड़े। सबके सामने ही निर्ममता के साथ फटकारते हुए उन्होंने कहा -'मूर्ख!तूने सोचा भी कैसे कि मैं तेरे कहने से किसी के लिए सिफारिश करूंगा? मैं यहां तेरा बाप नहीं, भारत का विधिमंत्री हूं। बाप हूं बम्बई के राजगृह (बाबासाहेब के निवास का नाम) में। बिना देर किये निकल जा मेरे कमरे से।' यशवंत को काटो तो खून नहीं। वह अपना सा मुंह लेकर उद्योगपतियों के साथ वापस लौट गया। इस घटना के बाद बाप-बेटे के रिश्ते सदा के लिए ठंडे पड़ गए। यहां यह स्मरण रहे कि यशवंत बाबासाहेब की पांच संतानों में से एकमात्र जीवित बचा पुत्र था। डॉ. आंबेडकर के तीन पुत्र और एक पुत्री छुटपन में ही काल-कवलित हो गए थे। स्वाभाविक ही बाबासाहेब में उसके प्रति पर्याप्त मोह रहा होगा। पर उनकी कर्तव्य-परायणता अधिक कठोर थी।
'गुरुता का वंदन'
यह सब लोग जानते हैं कि भीमराव को बाल्यकाल में आंबेडकर उपनाम उनके एक ब्राह्मण अध्यापक ने दिया था ताकि बालक को सामाजिक भेदभाव अधिक न झेलना पड़े। इसीलिए काफी लोग उन्हें बहुत समय तक ब्राह्मण ही समझते रहे। बाबासाहेब ने जब बड़े होकर अत्यधिक सामाजिक प्रतिष्ठा हासिल कर ली, उसके बाद की घटना है। बाबासाहेब मुंबई में दामोदर हॉल के निकट स्थित अपने कार्यालय में काफी अनुयाइयों के साथ बैठे थे। तभी उन आंबेडकर गुरूजी का वहां आगमन हो गया। वे वयोवृद्घ हो चुके थे। पर बाबासाहेब उनको देखते ही पहचान गए। भाव-विह्वल होकर उन्होंने भूमि पर लेटकर उन्हें साष्टांग प्रणाम किया। यही नहीं, वस्त्र आदि देकर उनका सम्मान भी किया। आंबेडकर गुरूजी अपने इस दिग्विजयी शिष्य की शिष्टता देखकर भाव-विभोर हो गए।
प्रस्तुति : अजय मित्तल
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