इतिहास में दर्ज हैउनकी सोच
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.डॉ. सतीशचन्द्र मित्तल
डॉ. आंबेडकर (1891-1956 ईं.) भारतीय राष्ट्रीय चेतना तथा सामाजिक परिवर्तन के उन्नायक थे। राष्ट्र के इतिहास में आध्यात्मिक-सांस्कृतिक एकीकरण में जो स्थान स्वामी विवेकानन्द का है, वही स्थान सरदार पटेल का देश की राजनीति में है। वही स्थान डॉ. आंबेडकर का राष्ट्र के सामाजिक एकीकरण के लिए है। उन्होंने अशांत अपमानित, वंचित पीडि़त, एक बड़े महत्वपूर्ण भाग को उनके आत्मगौरव के साथ खड़ा करने का असाधारण कार्य किया। वीर सावरकर ने उन्हें आधारभूत पुरुष कहा। प्रसिद्ध विद्वान कोयनारार्ड एसाल्ट ने अपनी पुस्तक में उन्हें भारत के महान ऋषि मनीषियों की श्रेणी में रखा।
समरसता
डॉ. आंबेडकर का निश्चित मत है कि हिन्दू समाज में सामाजिक समरसता के बिना एकता हो ही नहीं सकती। वस्तुत: हिन्दू समाज में समरसता की प्राप्ति ही उनका लक्ष्य रहा था। 1947 में दिल्ली की एक सभा में डॉ. साहेब ने कहा था कि सभी हिन्दू परस्पर सगे भाई हैं। और ऐसी भावना अपेक्षित है। आज बंधुभाव का अभाव है। जातियां आपसी ईर्ष्या और द्वेष बढ़ाती हैं। अत: जहां तक हम पहुंचना चाहते हंै अवरोध को कुप्रथाओं के खिलाफ होना होगा।
डॉ. आंबेडकर की भारतीयता के प्रति गहरी आस्था थी। इस संदर्भ में तत्कालीन भारत के किसी भी नेता की अपेक्षा वे अधिक स्पष्ट थे। उनकी भाषा में न दोहरापन था और न ही वे अपने शब्दों को वापस लेते थे। उन्होंने भारतीयता के बारे में कहा था, 'मुझे अच्छा नहीं लगता है जब कुछ लोग कहते हैं कि हम पहले भारतीय हैं- बाद में हिन्दू या मुसलमान। मुझे यह स्वीकार नहीं है। धर्म, संस्कृति, भाषा आदि के प्रति निष्ठा के रहते हुए उसकी भारतीयता के प्रति निष्ठा नहीं पनप सकती। मैं चाहता हूं कि लोग पहले भी भारतीय हों और अन्त तक भारतीय रहें। (देखें डा. आंबेडकर, राइटिंग्स एण्ड स्पीचेज भाग-दो पृष्ठ 195) डॉ.आंबेडकर की अगाध भारतीयता के कारण उनका हिन्दुत्ववादी संगठनों से गहरा लगाव था। उनके वीर सावरकर से घनिष्ठ सम्बंध थे, 14 अप्रैल, 1942 के प्रसंग पर तथा बाद में डॉ. अंबेडकर के बौद्ध धर्म में दीक्षा लेने पर वीर सावरकर ने उनके प्रति अपने भावनापूर्ण विचार व्यक्त किए थे। इतना ही नहीं महात्मा गांधी की हत्या पर जब कांग्रेस सरकार ने वीर सावरकर तथा संघ के सरसंघचालक श्री गुरुजी को षड्यंत्र करके फंसाया था तब उन्होंने कैबिनेट में विधि तथा श्रममंत्री रहते हुए भी हिन्दू महासभा के नेताओं को अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग का आश्वासन दिया था।
इसी भांति डॉ. आंबेडकर संघ के प्रणेता डॉ. हेडगेवार के सम्पर्क में 1935 ई. से थे। आंबेडकर 1935 तथा 1939 में संघ शिक्षा वर्ग में गये थे तथा 1937 में कतम्हाडा में विजयादशमी के उत्सव पर संघ की शाखा में उनका भाषण हुआ। उस कार्यक्रम में 600 की संख्या में 100 से अधिक वंचित तथा पिछड़े वर्ग के स्वयंसेवक थे जिसे देखकर डॉ. आंबेडकर को बड़ा आश्चर्य ही नहीं हुआ बल्कि भविष्य के प्रति उनकी आस्था भी बढ़ी थी। सितम्बर,1948 में उनकी भेंट श्रीगुरुजी से भी हुई थी। इतना ही नहीं डॉ. आंबेडकर के संविधान सभा की ध्वज समिति के सदस्य होने पर हिन्दू नेताओं ने उनके सामने भगवाध्वज को राष्ट्रीय ध्वज मानने का प्रस्ताव रखा था। डॉ. आंबेडकर की इच्छा थी कि भारतीय संविधान में संस्कृत भाषा भारत की राजभाषा बने (देखें, सण्डे स्टैण्डर्ड 10 सितम्बर, 1947)। पीटीआई के एक संवाददाता को उन्होंने कहा था, संस्कृत में क्या हर्ज है। यह भारत की राजभाषा होनी चाहिए।
विघटनकारी तत्वों के विरोधी
डॉ. आंबेडकर ने मुख्यत: इस्लाम, ईसाई तथा कम्युनिस्टों को राष्ट्रघातक शक्तियों के रूप में वर्णित किया है। उन्होंने लिखा, 'हम यदि ईसाइयत या इस्लाम को स्वीकार करेंगे तो हमारी भारतीयता में अन्तर आएगा।' हमारे सिर यरुशलम और मक्का-मदीना की ओर झुकने लगेंगे। यदि हम इस्लाम कबूल करते हैं तो मुसलमानों की संख्या दुगुनी हो जाएगी और देश के मुस्लिम राष्ट्र बनने का खतरा हो जाएगा। ईसाइायत ग्रहण करने के पश्चात भारत में ब्रिटिश प्रभुत्व होगा। (डॉ. डी. आर. यादव, डॉ. आंबेडकर: व्यक्तित्व और कृतित्व, पृ. 201) डॉ. आंबेडकर ने इस्लाम तथा मुस्लिम राजनीति के बारे में 'पाकिस्तान एण्ड द पार्टीशन ऑफ इंडिया' में अपने विचार विस्तार से दिए हंै। वे मुसलमानों को मतान्ध, असहिष्णु, मजहबी तथा गैर सेकुलर मानते हंै क्योंकि मुस्लिम सुधार विरोधी हैं। उनमें तिलमात्र भी लोकतंत्र की प्रवृत्ति नहीं है। 'हिन्दू और मुसलमानों के बारे में उनका तर्क है कि दोनों में ऐतिहासिक पूर्ववर्ती साम्य का कोई धागा नहीं है जो दोनों को एक सूत्र में पिरो सके। राजनीतिक और मजहबी दोनों ही क्षेत्र में उनका भूतकाल वैर भाव का रहा है। डॉ. आंबेडकर ने भारत में मुस्लिम गतिविधियों का गहन अध्ययन करने के पश्चात विवेचन किया। उनके अनुसार 711 ई. में मोहम्मद बिन कासिम ने सिन्ध पर इस्लाम की स्थापना के लिए आक्रमण किया। उसने 17 वर्ष की आयु से ऊपर के पुरुषों का वध कर दिया तथा महिलाओं तथा बच्चों को गुलाम बनाया। (देखें पाकिस्तान एण्ड पार्टीशन ऑफ इंडिया, पृ. 55 व पृ. 57) डॉ. आंबेडकर के अनुसार कुछ दिशा भ्रमित इतिहासकारों ने महमूद गजनवी को केवल लुटेरा कहा है जबकि उसके आक्रमण का उद्देश्य मन्दिरों का ध्वंस तथा इस्लाम की स्थापना था। तैमूरलंग के 1398 ई. में भारत पर आक्रमण का उद्देश्य काफिरों को मुसलमान बनाना था। औरंगजेब ने 1661 ई. में मंदिरों को तोड़ने का आदेश देकर हिन्दुत्व पर अंतिम प्रहार किया था। (देखें, वही पृ. 60-63) संक्षेप में मुस्लिम आक्रमणकारियों का समान लक्ष्य हिन्दुत्व को नष्ट करना था, यद्यपि वे एक-दूसरे के प्रबल शत्रु थे। (वही, पृष्ठ. 6-58) मुस्लिम आक्रमणकारियों तथा शासकों ने भारतीय जीवन प्रवाह में कन्वर्जन, अलगाव तथा साम्प्रदायिकता का विष घोला, जिसकी चरम परिणति 20वीं शताब्दी के चतुर्थ दशक में भारत विभाजन की मांग तथा पांचवें दशक में पाकिस्तान के निर्माण के साथ हुई।
डॉ. आंबेडकर ने तीन मानदण्डों के आधार पर मुस्लिम समाज का तीव्र विरोध किया। ये हैं मानवता, राष्ट्रवाद और बुद्धिवाद। वे कहते थे, इस्लाम का भ्रातृत्व मानव जाति का भ्रातृत्व नहीं, बल्कि यह भाईचारा केवल मुसलमानों तक सीमित है। इस्लाम राष्ट्रवाद की अवधारणा को ही नहीं मानता बल्कि वह राष्ट्रवाद को तोड़ने वाला मजहब है।
डॉ. आंबेडकर ने वंचित जाति के लोगों को सावधान किया कि उनका मुसलमानों और मुस्लिम लीग पर विश्वास आत्मघाती होगा। उन्होंने इसके लिए अविभाजित भारत में मुस्लिम लीग के समर्थक जोगेन्द्रनाथ मण्डल (वंचित जाति के व्यक्ति) का उदाहरण दिया जो पाकिस्तान में विधि और श्रममंत्री बना पर पाकिस्तान में जिसने वंचित जाति पर बलात् कर्न्वजन को प्रत्यक्ष देखा (देखें, धनंजय वीर, डॉ. आंबेडकर-लाइफ एण्ड मिशन, मुम्बई, 1971, पृ. 399) इस्लाम या ईसाई कन्वर्जन के बारे में उनका मत है कि इन दोनों में से किसी में भी 'कन्वर्टेड' होना वंचित वर्ग को अराष्ट्रीय बनाता है। (देखें-द टाइम्स ऑफ इंडिया, 24 जुलाई, 1936) उन्होंने यह भी कहा कि इनको अपनाने से वंचित वर्ग को सन्देह की दृष्टि से देखा जा सकता है। डॉ. आंबेडकर ने मुसलमानों में जातीय भेदभाव तथा महिला दुर्दशा का भी वर्णन किया है। (वही, पृ. 216-17) साथ ही उन्होंने कांग्रेस की मुसलमानों के प्रति अति सहिष्णुुता तथा मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति की कटु आलोचना की। (देखे्रं, वी. एस. सक्सेना, मुस्लिम इन द इंडियन नेशनल कांग्रेस पृ. 234) डॉ. आंबेडकर इस्लाम की भांति ईसाइयत के जरा भी पोषक नहीं हैं। उनके अनुसार, 'ईसाई सदाचरण नहीं करते। ईसाइयत के लिए हमें यरुशलम की ओर झुकना होगा जो न भारतभूमि है और न ही भारतीयता का इससे कोई सम्बंध है।' (देखंे, वसन्त सिंह, अंाबेडकर, पृष्ठ 91) ईसाई बनने के लिए स्वयं डॉ. आंबेडकर को वित्तीय सहायता देने की पेशकश की गई थी। उनके अनुसार दक्षिण भारत चर्च में जातीय भेदभाव है।
डॉ. अंाबेडकर ने मार्क्सवाद का जितना अध्ययन किया, उतना शायद ही भारत के किसी कम्युनिस्ट विद्वान या इतिहासकार ने किया हो (धनंजय कीर, पूर्व उद्वृत पृ. 301) उन्होंने अपनी प्रसिद्ध रचना बुद्ध और मार्क्स में मार्क्सवादी दर्शन को पूर्णत: नकारते हुए उसकी अनेक कमियों को बताया है डॉ. आंबेडकर ने विश्व इतिहास के संदर्भ में विविध संरचनाओं का गहन चिंतन किया। उन्होंने 1789 में प्रारंभ हुई फ्रांस की क्रांति का स्वागत किया जिसका प्रमुख उद्घोष स्वतंत्रता, समानता तथा भ्रातृत्व था। पर वह फ्रांस की भांति समाज को समानता न दे सकी। उन्होंने 1917 की रूस की बोल्शेविक क्रांति का स्वागत किया परंतु उसने रूस में भ्रातृत्व तथा स्वतंत्रता को बिल्कुल भुला दिया, परंतु बौद्ध मत में उन्होंने इन तीनों उद्घोषों की प्राप्ति की। (देखें, डॉ. कृष्ण गोपाल, बाबासाहेब: व्यक्ति और विचार, नई दिल्ली, पृ. 265) डॉ. आंबेडकर मार्क्स के केंद्र बिंदु, उनकी धुरी, आर्थिक तत्व को व्यक्ति तथा इतिहास की प्रेरक शक्ति नहीं मानते। उन्होंनेे मार्क्सवाद की इतिहास की भौतिकवादी व्यवस्था को अस्वीकार किया (विस्तार के लिए देखें, सतीश चन्द्र मित्तल, साम्यवाद का सच, नई दिल्ली 2006, पृ. 90) मार्क्स ने धर्म को अफीम की पुडि़या कहा, जबकि डॉ. आंबेडकर ने कहा, जो कुछ अच्छी बात मेरे में है... मेरे अन्दर धार्मिक भावनाओं के कारण संभव हुई है। वे मार्क्स के एक प्रमुख सिद्धांत वर्ग संघर्ष को खोखला तथा आचारहीन बतलाते हैं। डॉ. आंबेडकर ने भारत के कम्युनिस्टों को पहले ब्राह्मण, बाद में कम्युनिस्ट बताया तथा उन्होंने अपने विस्तृत अनुभवों के आधार पर कम्युनिस्टों को 'बंच ऑफ बाह्मण ब्यॉयज' कहा है। (देखें, डॉ. तुलसीराम, कम्युनिस्ट और दलितों के रिश्ते, राष्ट्रीय सहारा, 25 फरवरी 2002)
समय-समय पर भारतीय कम्युनिस्टों ने यद्यपि डॉ. आंबेडकर पर तीखे प्रहार किये, उन्हें देशद्रोही ब्रिटिश एजेंट बताया। उन्हें अवसरवादी, अलगाववादी तथा ब्रिटिश समर्थक बताया। (देखें, गैइल ओंफ, दलित एण्ड द डेमोक्रेटिक रिवोल्यूशन डॉ. आंबेडकर एण्ड द दलित मूवमंेट इन कोलोनियल इंडिया) पर डॉ. आंबेडकर इससे विचलित नहीं हुए बल्कि तत्परता से अपने कार्य में लगे रहे।
सम्भवत: डॉ. आंबेडकर की सबसे बड़ी उपलब्धियों में एक भारतीय समाज को कम्युनिस्टों से बचाना रहा। डॉ. अंाबेडकर के स्वयं के कथन का हवाला देते हुए श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी ने लिखा- वंचित लोगों और कम्युनिज्म के बीच आंबेडकर एक अवरोध बनकर खड़े हैं और दूसरे सवर्ण हिन्दुओं तथा कम्युनिज्म के बीच गोलवलकर भी अवरोध के रूप में हैं। (दत्तोपंत ठेंगड़ी संकेत रेखा, नई दिल्ली 1959 पृ.287-88) संक्षेप में वे मार्क्सवाद को धर्मविहीन तथा रीढ़विहीन मानते हैं।
दुर्भाग्य्य से यह कटु सत्य है कि बहुतों ने राष्ट्र के इस महान व्यक्तित्व की प्रतिभा को न ही पहचाना और न उनके सद्गुणों का समुचित राष्ट्रहित में प्रयोग किया। आमतौर पर मीडिया, शिक्षाविदों और बुद्धिजीवियों ने उनको केवल वंचित नेता के रूप में देखा तथा उनकी पहचान को बौना कर दिया। कांग्रेस ने भारतीय संविधान निर्माण में उनका पूरा उपयोग किया, पर उसी कांग्रेस से उन्हेंे सितम्बर 1951 में त्यागपत्र देकर विरोध में खड़ा होना पड़ा। यद्यपि वोट बैंक ब्यक्ति जोड़ने के लिए 2 अप्रैल, 1990 को उनका संसद में चित्र तथा उनके जन्मदिन 14 अप्रैल 1990 को उनकी मृत्यु के 34 वर्षों के पश्चात् मजबूरी में भारतरत्न देना पड़ा जो बहुत पहले हो जाना चाहिए था। भारतीय कम्युनिस्टों ने 1930-37 तक उनकी प्रतिभा का लाभ उठाया परन्तु बाद में उनके लिए अपशब्द बोलकर अपना असली रूप दिखलाया। बहुजन समाज पार्टी ने उनके मुसलमानों, ईसाइयों के बारे में मुख्य विचारों को बिल्कुल भुलाकर उनके नाम तथा जाति का लाभ उठाया। अनेक बुद्धिजीवियों ने भी उन्हें 'हिन्दू विद्रोही' अथवा 'ब्रिटिश भक्त सिद्ध करने में अपनी पूरी ऊर्जा लगा दी।' इस महान पुरुष के व्यक्तित्व तथा कृतित्व को सही सन्दर्भ में जानने के लिए आवश्यक है कि हम उनका चिन्तन समग्र रूप से करंे। डॉ. आंबेडकर परिष्कृत हिन्दू राष्ट्रवाद के व्याख्याता थे। उन्होंने अपनी पुस्तकों में 'हिन्दू' शब्द का प्रयोग राष्ट्रीयता के लिए कई बार किया था। वे भारत के राष्ट्रोत्थान, शक्तिमान तथा एकता के लिए हिन्दू समाज को सर्वोपरि स्थान देने के प्रबल समर्थक थे। वे वंचितों को भारत के हिन्दू जीवन की मुख्यधारा से जोड़ना चाहते थे, तोड़ना नहीं। आवश्यकता है कि देश के राजनीतिक, स्वपोषित छद्म सेकुलरवादी, बुद्धिजीवी तथा देश के वंचित वर्ग के नेता इस तथ्य को समझंे तथा उसके अनुसार आचरण करें। देश की युवा पीढ़ी उनके कृतित्व से प्रेरणा लें।
डॉ. आंबेडकर (1891-1956 ईं.) भारतीय राष्ट्रीय चेतना तथा सामाजिक परिवर्तन के उन्नायक थे। राष्ट्र के इतिहास में आध्यात्मिक-सांस्कृतिक एकीकरण में जो स्थान स्वामी विवेकानन्द का है, वही स्थान सरदार पटेल का देश की राजनीति में है। वही स्थान डॉ. आंबेडकर का राष्ट्र के सामाजिक एकीकरण के लिए है। उन्होंने अशांत अपमानित, वंचित पीडि़त, एक बड़े महत्वपूर्ण भाग को उनके आत्मगौरव के साथ खड़ा करने का असाधारण कार्य किया। वीर सावरकर ने उन्हें आधारभूत पुरुष कहा। प्रसिद्ध विद्वान कोयनारार्ड एसाल्ट ने अपनी पुस्तक में उन्हें भारत के महान ऋषि मनीषियों की श्रेणी में रखा।
समरसता
डॉ. आंबेडकर का निश्चित मत है कि हिन्दू समाज में सामाजिक समरसता के बिना एकता हो ही नहीं सकती। वस्तुत: हिन्दू समाज में समरसता की प्राप्ति ही उनका लक्ष्य रहा था। 1947 में दिल्ली की एक सभा में डॉ. साहेब ने कहा था कि सभी हिन्दू परस्पर सगे भाई हैं। और ऐसी भावना अपेक्षित है। आज बंधुभाव का अभाव है। जातियां आपसी ईर्ष्या और द्वेष बढ़ाती हैं। अत: जहां तक हम पहुंचना चाहते हंै अवरोध को कुप्रथाओं के खिलाफ होना होगा।
डॉ. आंबेडकर की भारतीयता के प्रति गहरी आस्था थी। इस संदर्भ में तत्कालीन भारत के किसी भी नेता की अपेक्षा वे अधिक स्पष्ट थे। उनकी भाषा में न दोहरापन था और न ही वे अपने शब्दों को वापस लेते थे। उन्होंने भारतीयता के बारे में कहा था, 'मुझे अच्छा नहीं लगता है जब कुछ लोग कहते हैं कि हम पहले भारतीय हैं- बाद में हिन्दू या मुसलमान। मुझे यह स्वीकार नहीं है। धर्म, संस्कृति, भाषा आदि के प्रति निष्ठा के रहते हुए उसकी भारतीयता के प्रति निष्ठा नहीं पनप सकती। मैं चाहता हूं कि लोग पहले भी भारतीय हों और अन्त तक भारतीय रहें। (देखें डा. आंबेडकर, राइटिंग्स एण्ड स्पीचेज भाग-दो पृष्ठ 195) डॉ.आंबेडकर की अगाध भारतीयता के कारण उनका हिन्दुत्ववादी संगठनों से गहरा लगाव था। उनके वीर सावरकर से घनिष्ठ सम्बंध थे, 14 अप्रैल, 1942 के प्रसंग पर तथा बाद में डॉ. अंबेडकर के बौद्ध धर्म में दीक्षा लेने पर वीर सावरकर ने उनके प्रति अपने भावनापूर्ण विचार व्यक्त किए थे। इतना ही नहीं महात्मा गांधी की हत्या पर जब कांग्रेस सरकार ने वीर सावरकर तथा संघ के सरसंघचालक श्री गुरुजी को षड्यंत्र करके फंसाया था तब उन्होंने कैबिनेट में विधि तथा श्रममंत्री रहते हुए भी हिन्दू महासभा के नेताओं को अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग का आश्वासन दिया था।
इसी भांति डॉ. आंबेडकर संघ के प्रणेता डॉ. हेडगेवार के सम्पर्क में 1935 ई. से थे। आंबेडकर 1935 तथा 1939 में संघ शिक्षा वर्ग में गये थे तथा 1937 में कतम्हाडा में विजयादशमी के उत्सव पर संघ की शाखा में उनका भाषण हुआ। उस कार्यक्रम में 600 की संख्या में 100 से अधिक वंचित तथा पिछड़े वर्ग के स्वयंसेवक थे जिसे देखकर डॉ. आंबेडकर को बड़ा आश्चर्य ही नहीं हुआ बल्कि भविष्य के प्रति उनकी आस्था भी बढ़ी थी। सितम्बर,1948 में उनकी भेंट श्रीगुरुजी से भी हुई थी। इतना ही नहीं डॉ. आंबेडकर के संविधान सभा की ध्वज समिति के सदस्य होने पर हिन्दू नेताओं ने उनके सामने भगवाध्वज को राष्ट्रीय ध्वज मानने का प्रस्ताव रखा था। डॉ. आंबेडकर की इच्छा थी कि भारतीय संविधान में संस्कृत भाषा भारत की राजभाषा बने (देखें, सण्डे स्टैण्डर्ड 10 सितम्बर, 1947)। पीटीआई के एक संवाददाता को उन्होंने कहा था, संस्कृत में क्या हर्ज है। यह भारत की राजभाषा होनी चाहिए।
विघटनकारी तत्वों के विरोधी
डॉ. आंबेडकर ने मुख्यत: इस्लाम, ईसाई तथा कम्युनिस्टों को राष्ट्रघातक शक्तियों के रूप में वर्णित किया है। उन्होंने लिखा, 'हम यदि ईसाइयत या इस्लाम को स्वीकार करेंगे तो हमारी भारतीयता में अन्तर आएगा।' हमारे सिर यरुशलम और मक्का-मदीना की ओर झुकने लगेंगे। यदि हम इस्लाम कबूल करते हैं तो मुसलमानों की संख्या दुगुनी हो जाएगी और देश के मुस्लिम राष्ट्र बनने का खतरा हो जाएगा। ईसाइायत ग्रहण करने के पश्चात भारत में ब्रिटिश प्रभुत्व होगा। (डॉ. डी. आर. यादव, डॉ. आंबेडकर: व्यक्तित्व और कृतित्व, पृ. 201) डॉ. आंबेडकर ने इस्लाम तथा मुस्लिम राजनीति के बारे में 'पाकिस्तान एण्ड द पार्टीशन ऑफ इंडिया' में अपने विचार विस्तार से दिए हंै। वे मुसलमानों को मतान्ध, असहिष्णु, मजहबी तथा गैर सेकुलर मानते हंै क्योंकि मुस्लिम सुधार विरोधी हैं। उनमें तिलमात्र भी लोकतंत्र की प्रवृत्ति नहीं है। 'हिन्दू और मुसलमानों के बारे में उनका तर्क है कि दोनों में ऐतिहासिक पूर्ववर्ती साम्य का कोई धागा नहीं है जो दोनों को एक सूत्र में पिरो सके। राजनीतिक और मजहबी दोनों ही क्षेत्र में उनका भूतकाल वैर भाव का रहा है। डॉ. आंबेडकर ने भारत में मुस्लिम गतिविधियों का गहन अध्ययन करने के पश्चात विवेचन किया। उनके अनुसार 711 ई. में मोहम्मद बिन कासिम ने सिन्ध पर इस्लाम की स्थापना के लिए आक्रमण किया। उसने 17 वर्ष की आयु से ऊपर के पुरुषों का वध कर दिया तथा महिलाओं तथा बच्चों को गुलाम बनाया। (देखें पाकिस्तान एण्ड पार्टीशन ऑफ इंडिया, पृ. 55 व पृ. 57) डॉ. आंबेडकर के अनुसार कुछ दिशा भ्रमित इतिहासकारों ने महमूद गजनवी को केवल लुटेरा कहा है जबकि उसके आक्रमण का उद्देश्य मन्दिरों का ध्वंस तथा इस्लाम की स्थापना था। तैमूरलंग के 1398 ई. में भारत पर आक्रमण का उद्देश्य काफिरों को मुसलमान बनाना था। औरंगजेब ने 1661 ई. में मंदिरों को तोड़ने का आदेश देकर हिन्दुत्व पर अंतिम प्रहार किया था। (देखें, वही पृ. 60-63) संक्षेप में मुस्लिम आक्रमणकारियों का समान लक्ष्य हिन्दुत्व को नष्ट करना था, यद्यपि वे एक-दूसरे के प्रबल शत्रु थे। (वही, पृष्ठ. 6-58) मुस्लिम आक्रमणकारियों तथा शासकों ने भारतीय जीवन प्रवाह में कन्वर्जन, अलगाव तथा साम्प्रदायिकता का विष घोला, जिसकी चरम परिणति 20वीं शताब्दी के चतुर्थ दशक में भारत विभाजन की मांग तथा पांचवें दशक में पाकिस्तान के निर्माण के साथ हुई।
डॉ. आंबेडकर ने तीन मानदण्डों के आधार पर मुस्लिम समाज का तीव्र विरोध किया। ये हैं मानवता, राष्ट्रवाद और बुद्धिवाद। वे कहते थे, इस्लाम का भ्रातृत्व मानव जाति का भ्रातृत्व नहीं, बल्कि यह भाईचारा केवल मुसलमानों तक सीमित है। इस्लाम राष्ट्रवाद की अवधारणा को ही नहीं मानता बल्कि वह राष्ट्रवाद को तोड़ने वाला मजहब है।
डॉ. आंबेडकर ने वंचित जाति के लोगों को सावधान किया कि उनका मुसलमानों और मुस्लिम लीग पर विश्वास आत्मघाती होगा। उन्होंने इसके लिए अविभाजित भारत में मुस्लिम लीग के समर्थक जोगेन्द्रनाथ मण्डल (वंचित जाति के व्यक्ति) का उदाहरण दिया जो पाकिस्तान में विधि और श्रममंत्री बना पर पाकिस्तान में जिसने वंचित जाति पर बलात् कर्न्वजन को प्रत्यक्ष देखा (देखें, धनंजय वीर, डॉ. आंबेडकर-लाइफ एण्ड मिशन, मुम्बई, 1971, पृ. 399) इस्लाम या ईसाई कन्वर्जन के बारे में उनका मत है कि इन दोनों में से किसी में भी 'कन्वर्टेड' होना वंचित वर्ग को अराष्ट्रीय बनाता है। (देखें-द टाइम्स ऑफ इंडिया, 24 जुलाई, 1936) उन्होंने यह भी कहा कि इनको अपनाने से वंचित वर्ग को सन्देह की दृष्टि से देखा जा सकता है। डॉ. आंबेडकर ने मुसलमानों में जातीय भेदभाव तथा महिला दुर्दशा का भी वर्णन किया है। (वही, पृ. 216-17) साथ ही उन्होंने कांग्रेस की मुसलमानों के प्रति अति सहिष्णुुता तथा मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति की कटु आलोचना की। (देखे्रं, वी. एस. सक्सेना, मुस्लिम इन द इंडियन नेशनल कांग्रेस पृ. 234) डॉ. आंबेडकर इस्लाम की भांति ईसाइयत के जरा भी पोषक नहीं हैं। उनके अनुसार, 'ईसाई सदाचरण नहीं करते। ईसाइयत के लिए हमें यरुशलम की ओर झुकना होगा जो न भारतभूमि है और न ही भारतीयता का इससे कोई सम्बंध है।' (देखंे, वसन्त सिंह, अंाबेडकर, पृष्ठ 91) ईसाई बनने के लिए स्वयं डॉ. आंबेडकर को वित्तीय सहायता देने की पेशकश की गई थी। उनके अनुसार दक्षिण भारत चर्च में जातीय भेदभाव है।
डॉ. अंाबेडकर ने मार्क्सवाद का जितना अध्ययन किया, उतना शायद ही भारत के किसी कम्युनिस्ट विद्वान या इतिहासकार ने किया हो (धनंजय कीर, पूर्व उद्वृत पृ. 301) उन्होंने अपनी प्रसिद्ध रचना बुद्ध और मार्क्स में मार्क्सवादी दर्शन को पूर्णत: नकारते हुए उसकी अनेक कमियों को बताया है डॉ. आंबेडकर ने विश्व इतिहास के संदर्भ में विविध संरचनाओं का गहन चिंतन किया। उन्होंने 1789 में प्रारंभ हुई फ्रांस की क्रांति का स्वागत किया जिसका प्रमुख उद्घोष स्वतंत्रता, समानता तथा भ्रातृत्व था। पर वह फ्रांस की भांति समाज को समानता न दे सकी। उन्होंने 1917 की रूस की बोल्शेविक क्रांति का स्वागत किया परंतु उसने रूस में भ्रातृत्व तथा स्वतंत्रता को बिल्कुल भुला दिया, परंतु बौद्ध मत में उन्होंने इन तीनों उद्घोषों की प्राप्ति की। (देखें, डॉ. कृष्ण गोपाल, बाबासाहेब: व्यक्ति और विचार, नई दिल्ली, पृ. 265) डॉ. आंबेडकर मार्क्स के केंद्र बिंदु, उनकी धुरी, आर्थिक तत्व को व्यक्ति तथा इतिहास की प्रेरक शक्ति नहीं मानते। उन्होंनेे मार्क्सवाद की इतिहास की भौतिकवादी व्यवस्था को अस्वीकार किया (विस्तार के लिए देखें, सतीश चन्द्र मित्तल, साम्यवाद का सच, नई दिल्ली 2006, पृ. 90) मार्क्स ने धर्म को अफीम की पुडि़या कहा, जबकि डॉ. आंबेडकर ने कहा, जो कुछ अच्छी बात मेरे में है... मेरे अन्दर धार्मिक भावनाओं के कारण संभव हुई है। वे मार्क्स के एक प्रमुख सिद्धांत वर्ग संघर्ष को खोखला तथा आचारहीन बतलाते हैं। डॉ. आंबेडकर ने भारत के कम्युनिस्टों को पहले ब्राह्मण, बाद में कम्युनिस्ट बताया तथा उन्होंने अपने विस्तृत अनुभवों के आधार पर कम्युनिस्टों को 'बंच ऑफ बाह्मण ब्यॉयज' कहा है। (देखें, डॉ. तुलसीराम, कम्युनिस्ट और दलितों के रिश्ते, राष्ट्रीय सहारा, 25 फरवरी 2002)
समय-समय पर भारतीय कम्युनिस्टों ने यद्यपि डॉ. आंबेडकर पर तीखे प्रहार किये, उन्हें देशद्रोही ब्रिटिश एजेंट बताया। उन्हें अवसरवादी, अलगाववादी तथा ब्रिटिश समर्थक बताया। (देखें, गैइल ओंफ, दलित एण्ड द डेमोक्रेटिक रिवोल्यूशन डॉ. आंबेडकर एण्ड द दलित मूवमंेट इन कोलोनियल इंडिया) पर डॉ. आंबेडकर इससे विचलित नहीं हुए बल्कि तत्परता से अपने कार्य में लगे रहे।
सम्भवत: डॉ. आंबेडकर की सबसे बड़ी उपलब्धियों में एक भारतीय समाज को कम्युनिस्टों से बचाना रहा। डॉ. अंाबेडकर के स्वयं के कथन का हवाला देते हुए श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी ने लिखा- वंचित लोगों और कम्युनिज्म के बीच आंबेडकर एक अवरोध बनकर खड़े हैं और दूसरे सवर्ण हिन्दुओं तथा कम्युनिज्म के बीच गोलवलकर भी अवरोध के रूप में हैं। (दत्तोपंत ठेंगड़ी संकेत रेखा, नई दिल्ली 1959 पृ.287-88) संक्षेप में वे मार्क्सवाद को धर्मविहीन तथा रीढ़विहीन मानते हैं।
दुर्भाग्य्य से यह कटु सत्य है कि बहुतों ने राष्ट्र के इस महान व्यक्तित्व की प्रतिभा को न ही पहचाना और न उनके सद्गुणों का समुचित राष्ट्रहित में प्रयोग किया। आमतौर पर मीडिया, शिक्षाविदों और बुद्धिजीवियों ने उनको केवल वंचित नेता के रूप में देखा तथा उनकी पहचान को बौना कर दिया। कांग्रेस ने भारतीय संविधान निर्माण में उनका पूरा उपयोग किया, पर उसी कांग्रेस से उन्हेंे सितम्बर 1951 में त्यागपत्र देकर विरोध में खड़ा होना पड़ा। यद्यपि वोट बैंक ब्यक्ति जोड़ने के लिए 2 अप्रैल, 1990 को उनका संसद में चित्र तथा उनके जन्मदिन 14 अप्रैल 1990 को उनकी मृत्यु के 34 वर्षों के पश्चात् मजबूरी में भारतरत्न देना पड़ा जो बहुत पहले हो जाना चाहिए था। भारतीय कम्युनिस्टों ने 1930-37 तक उनकी प्रतिभा का लाभ उठाया परन्तु बाद में उनके लिए अपशब्द बोलकर अपना असली रूप दिखलाया। बहुजन समाज पार्टी ने उनके मुसलमानों, ईसाइयों के बारे में मुख्य विचारों को बिल्कुल भुलाकर उनके नाम तथा जाति का लाभ उठाया। अनेक बुद्धिजीवियों ने भी उन्हें 'हिन्दू विद्रोही' अथवा 'ब्रिटिश भक्त सिद्ध करने में अपनी पूरी ऊर्जा लगा दी।' इस महान पुरुष के व्यक्तित्व तथा कृतित्व को सही सन्दर्भ में जानने के लिए आवश्यक है कि हम उनका चिन्तन समग्र रूप से करंे। डॉ. आंबेडकर परिष्कृत हिन्दू राष्ट्रवाद के व्याख्याता थे। उन्होंने अपनी पुस्तकों में 'हिन्दू' शब्द का प्रयोग राष्ट्रीयता के लिए कई बार किया था। वे भारत के राष्ट्रोत्थान, शक्तिमान तथा एकता के लिए हिन्दू समाज को सर्वोपरि स्थान देने के प्रबल समर्थक थे। वे वंचितों को भारत के हिन्दू जीवन की मुख्यधारा से जोड़ना चाहते थे, तोड़ना नहीं। आवश्यकता है कि देश के राजनीतिक, स्वपोषित छद्म सेकुलरवादी, बुद्धिजीवी तथा देश के वंचित वर्ग के नेता इस तथ्य को समझंे तथा उसके अनुसार आचरण करें। देश की युवा पीढ़ी उनके कृतित्व से प्रेरणा लें।
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