प्रेरणादायी व्यक्तित्व के धनी
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यद्यपि डॉ. आंबेडकर हिंदू-मुस्लिम एकता की आवश्यकता के पक्ष में बोलते रहे, तो भी अपने आर्त्तहृदय से उनका पक्का विश्वास था कि मुसलमानों की कट्टरपंथी अलगाववादी प्रवृत्ति उस एकता में बाधक होगी।
डॉ. राजेन्द्र सिंह उपाख्य रज्जू भैया
4 वर्ष पूर्व संघ ने डॉ. आंबेडकर की जन्मशताब्दी मनाई। उस वर्ष संघ-स्वयंसेवकों द्वारा चलाई जा रही संस्थाओं ने अनेक समारोह आयोजित किए थे। हमने बाबासाहेब आंबेडकर की महत्वपूर्ण उपलब्धियों को रेखांकित करते हुए उनका एक छोटा जीवनवृत्त भी प्रकाशित किया। इस लघु पुस्तिका की दो करोड़ प्रतियां देश भर में वितरित की गईं।
डॉ. आंबेडकर कठिनाइयों से कभी हताश नहीं हुए, वरन् उन्होंने परिस्थितियों का बड़े साहसपूर्वक सामना किया। मैं विद्यार्थियों की युवा पीढ़ी से विशेषत: आग्रह कर रहा हूं कि वे डॉ. आंबेडकर के जीवन से कुछ सीखें। कठिनाई के क्षणों में उनका जीवन बड़ी प्रेरणा दे सकता है।
आंबेडकरजी सन 1913 में स्नातक बने और बड़ौदा के महाराजा सयाजीराव गायकवाड़ से, जो एक राष्ट्रवादी और प्रगतिशील व्यक्ति थे, छात्रवृत्ति पाकर आगे अध्ययन के लिए अमरीका चले गए। सन 1915 में कोलंबिया विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में एम. ए. की उपाधि (डिग्री) प्राप्त करने के पश्चात् उन्होंने पीएच.डी. के लिए शोध-कार्य प्रारंभ किया। उनके शोध का विषय था-ब्रिटिश शासन द्वारा भारत में अपनाई गई अर्थनीति एवं प्रांतीय अर्थव्यवस्था।
सन् 1916 में इंग्लैंड जाकर लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में अर्थशास्त्र से एम.एस.सी तथा बैरिस्टर ऐट लॉ उपाधियों के लिए प्रवेश लिया। परंतु छात्रवृत्ति की अवधि समाप्त हो जाने पर अर्थाभाव के कारण उन्हें भारत लौटना पड़ा।
स्वदेश में उन्हें महाराजा बड़ौदा के सैनिक सचिव के पद पर नियुक्ति मिल गई, किंतु प्रचलित सामाजिक कुप्रथाओं व विकृत मान्यताओं के कारण उन्हें बड़ौदा में कहीं भी रहने के लिए समुचित घर नहीं मिल सका। अनुसूचित जातियों के प्रति इस प्रकार के भेदभावपूर्ण व्यवहार ने उन्हें बहुत विक्षुब्ध कर दिया तथा वे अपने पद से त्याग-पत्र देकर मुंबई चले गए जहां उन्हें एक महाविद्यालय में प्राध्यापक का पद प्राप्त हो गया। उन्होंने अनुसूचित जातियों के लोगों की अनेक सभाएं आयोजित कर उन्हें शिक्षा का महत्व समझाया और सम्मानपूर्वक जीने की प्रेरणा दी।
सन् 1920 में वे अपना अध्ययन पूरा करने के लिए फिर से लंदन चले गए। अर्थशास्त्र में एम.एस-सी और बार ऐट लॉ की उपाधियां प्राप्त करने के पश्चात् उन्होंने 'रुपए की समस्या' पर शोध-प्रबंध किया, जिसमें थोड़े से संशोधन के पश्चात् लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से उन्हें डी.एस-सी की उपाधि प्राप्त हुई। वापस भारत लौटकर डॉ. आंबेडकर ने वकालत का स्वतंत्र व्यवसाय अपनाया और अनुसूचित जातियों का नेतृत्व करने लगे। उन दिनों उनकी आय अधिक नहीं थी, क्योंकि वे अधिकतर दलितों के मुकदमे लड़ते थे जो अधिक शुल्क नहीं दे सकते थे। शीघ्र ही वे बंबई में उनके निर्विवाद प्रवक्ता बन गए। उनका मत था कि अनुसूचित जातियों के नेता उसी वर्ग में से होने चाहिए।
सन् 1930 में डॉ. आंबेडकर लंदन में आयोजित प्रथम गोलमेज सम्मेलन में अनुसूचित जातियों के प्रतिनिधि के रूप में आमंत्रित किए गए। वहां उन्होंने प्रश्न किया कि यदि आप मुसलमानों को पृथक निर्वाचक-मंडल दे सकते हैं तो दलितों को क्यों नहीं? गांधीजी का विचार था कि अनुसूचित जातियां तो हिंदू समाज के अविच्छेद अंग हैं, अत: उनके लिए पृथक निर्वाचक-मंडल का कोई औचित्य नहीं है। यद्यपि डॉ. आंबेडकर हिंदू-मुस्लिम एकता की आवश्यकता के पक्ष में बोलते रहे, तो भी अपने आर्तहृदय से उनका पक्का विश्वास था कि मुसलमानों की कट्टरपंथी अलगाववादी प्रवृत्ति उस एकता में बाधक होगी।
स्वयं डॉ. आंबेडकर को तथा पूरे दलित वर्ग को देश में एक जैसे भेदभाव का सामना करना पड़ता था, उसने उनमें कटुता भर दी थी और इसलिए वे अनुसूचित वर्गों के लिए पृथक् निर्वाचक-मंडल चाहते थे। प्रथम गोलमेज सम्मेलन के असफल हो जाने पर दूसरा सम्मेलन आहूत किया गया। डॉ. आंबेडकर ने उसमें भी पृथक निर्वाचक मंडल का आग्रह किया और अंग्रेज सरकार तत्परता से उस पर सहमत हो गई। गांधीजी को इसमें अंग्रेजों की चाल और हिंदुओं को विभक्त करने का प्रयास दिखाई दिया, अत: उन्होंने इस मांग को छोड़ देने के लिए डॉ. आंबेडकर पर दबाव डालने के उद्देश्य से अनशन प्रारंभ कर दिया। जैसे-जैसे अनशन आगे बढ़ा, वातावरण तनाव में आता गया और गांधीजी का जीवन बचाने के लिए डॉ. आंबेडकर पर भारी दबाव पड़ने लगा। अंत में एक सहमति हुई जिसके अनुसार निर्णय हुआ कि आरक्षित स्थानों के लिए डॉ. आंबेडकर के दल की ओर से खड़े अधिकतर प्रत्याशियों को स्वीकार लिया जाएगा। उसके बाद हुए प्रथम चुनाव में डॉ. आंबेडकर के शिड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन (अनुसूचित जाति संघ) को अधिकांश आरक्षित स्थानों पर विजय प्राप्त हुई।
द्वितीय विश्वयुद्ध के समय डॉ. आंबेडकर ने ब्रिटिश सरकार के साथ सहयोग किया, क्योंकि वे नाजीवाद और फासीवाद के विरुद्ध थे। अनुसूचित जातियों को सरकारी नौकरी दिलाकर लाभान्वित कराने के लिए वे वायसराय की प्रशासनिक परिषद् (एक्जीक्यूटिव कौंसिल) के सदस्य भी बन गए। किंतु इससे वे समाज में इतने अलग-थलग पड़ गए कि सन 1945 के चुनाव में उनके दल को एक भी स्थान नहीं मिला।
फिर आया प्रश्न (स्वतंत्र भारत के) संविधान का प्रारूप तैयार करने का। सरदार पटेल और गांधीजी डॉ. आंबेडकर की क्षमता को समझते थे, अत: उन्होंने न केवल संविधान की प्रारूप समिति (ड्राफ्टिंग कमेटी) को अपितु समूची संविधान-सभा का भी उन्हें एक महत्वपूर्ण सदस्य बनाया। समिति के अधिकांश सदस्य या तो अस्वस्थ हो गए या अवकाश पर चले गए। जिससे संविधान के प्रारूप को आंतिम रूप देने का कठिन कार्य डॉ. आंबेडकर के कंधों पर आ पड़ा। संविधान-निर्माण में उनकी असाधारण भूमिका रही। उनकी विद्वत्त और कठिन परिश्रमशीलता की छाप पूरे देश पर अंकित हुई। वर्षों से मधुमेह के रोग और इस कठिन कार्य ने उनके स्वास्थ्य को तहस-नहस कर दिया।
दलितों के प्रति भेदभावपूर्ण व्यवहार को देखते हुए सन् 1935 में उन्होंने घोषणा की कि मैं जन्मा तो हिंदू के रूप में था, परंतु हिंदू रहकर मरूंगा नहीं। इस घोषणा से देश में बड़ी खलबली मच गई और कहा जाता है कि हैदराबाद के निजाम ने उन्हें दलितों को साथ लेकर इस्लाम में सम्मिलित हो जाने के लिए करोड़ों रुपयों का प्रलोभन दिया। इसी प्रकार ईसाई मिशनरियों ने भी प्रलोभन दिए। किंतु डॉ. आंबेडकर ने उनसे स्पष्ट कह दिया कि उनके मजहब या रिलीजन भारत-भूमि के लिए पराए हैं, इसलिए वे हमसे हमारी संस्कृति को ही छीन लेंगे। सन 1942 के चुनाव में पराजित हो जाने के पश्चात् उन्होंने बौद्ध मत का गहराई से अध्ययन किया। बौद्ध मत की करुणा ने उन्हें विशेष रूप से प्रभावित किया और उन्होंने बौद्ध बन जाने का निश्चय कर लिया। बौद्ध मत ग्रहण करने से पूर्व उन्होंने दलितों को एक विशेष संदेश दिया। उन्होंने कहा-मैं बौद्ध धर्म इसलिए स्वीकार कर रहा हूं कि यह सबकी समानता का वचन देता है और इसी देश की धरती का एक पंथ है, इसलिए यह हमें इस देश की संस्कृति के विरोध में नहीं जाने देगा।
अपनी पुस्तक 'थॉट्स ऑन पाकिस्तान' में उन्होंने स्पष्ट लिखा कि पाकिस्तान अल्पसंख्यकों के साथ अत्यंत क्रूरता करेगा और यदि हम पाकिस्तान बनाया जाना स्वीकार कर लेते हैं तो हमें हिंदू-मुसलमानों की अदला-बदली भी स्वीकार करनी चाहिए।
कम्यूनिज्म के बारे में उनकी मान्यता बिलकुल स्पष्ट थी कि वह स्वतंत्रता और मानवता के विरुद्ध है। संघ के एक वरिष्ठ कार्यकर्ता ने जब उनसे भेंट की तो डॉ. आंबेडकर ने कहा कि 'जैैसे गुरुजी गोलवलकर सवर्ण हिंदुओं और कम्युनिज्म के बीच अवरोधक दीवार हैं, वैसे ही मैं (आंबेडकर) दलितों और कम्युनिज्म के बीच दीवार बनकर खड़ा हूं।' वे पुणे के संघ-शिविर में आए और उसकी देशभक्ति, अनुशासन तथा छुआछूत के पूर्ण अभाव की प्रशंसा की। किंतु उनका कहना था कि मैं शीघ्रता में हूं, क्योंकि (स्वास्थ्य ठीक न रहने के कारण) मेरे पास अब अधिक समय नहीं है और संघ की पद्धति धीरे-धीरे आगे बढ़ने की है। आधुनिक विश्व ने फ्रंासीसी क्रांति में उभरे उद्घोष-स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व का अनुसरण किया। पश्चिम ने स्वतंत्रता पर अधिक बल दिया और बाजार की अर्थव्यवस्था का समर्थक बन गया। इसका परिणाम धनी और निर्धन के बीच बढ़ती खाई के रूप में सामने आया। कम्युनिस्टों ने समानता का आग्रह रखा, परंतु मानवाधिकारों को तिलांजलि दे दी। तीसरे सिद्धांत बंधुत्व पर इनमें से किसी ने भी ध्यान नहीं दिया। डॉ. आंबेडकर के मन में यह बात पूर्णत: स्पष्ट थी कि बंधुत्व भाव को अपनाए बिना शेष दो सिद्धांत निरर्थक हो जाते हैं। वे उपर्युक्त दोनों विचारधाराओं की सीमाओं से परिचित थे।
हम अपने संविधान के शिल्पी का, उनकी विद्वत्ता और परिश्रम का तथा उनकी देशभक्ति और व्यावहारिक दृष्टिकोण का अभिवादन करते हैं, यह तो स्वाभाविक ही था कि वे दलितों का अपमान सहन नहीं कर सके। उनको हिंदू समाज के अन्य वर्गों में परिवर्तन की प्रवृत्ति बहुत धीमी प्रतीत होती थी। आइए, इस अवसर पर हम संकल्प करें कि अपने हिंदू समाज को विकृतियों से मुक्त कर एक ऐसा समाज बनाएंगे जो समरसता आत्मविश्वास और ज्ञान से परिपूर्ण हो, जिससे यह संपूर्ण मानव जाति को महान् ऋषियों का संदेश दे सके।
(फ्रेंड्स ऑफ इंडिया सोसाइटी इंटरनेशनल के तत्वावधान में आयोजित डॉ. भीमराव आंबेडकर के 104वें जन्म दिवस समारोह के अवसर पर उद्बोधन, स्थान-रॉयल नेशनल होटल (मध्य लंदन), दिनांक 14-4-1995. देवेन्द्र स्वरूप एवं डॉ. ब्रजकिशोर शर्मा द्वारा संपादित पुस्तक हमारे रज्जू भैया से साभार।
डॉ. राजेन्द्र सिंह उपाख्य रज्जू भैया
4 वर्ष पूर्व संघ ने डॉ. आंबेडकर की जन्मशताब्दी मनाई। उस वर्ष संघ-स्वयंसेवकों द्वारा चलाई जा रही संस्थाओं ने अनेक समारोह आयोजित किए थे। हमने बाबासाहेब आंबेडकर की महत्वपूर्ण उपलब्धियों को रेखांकित करते हुए उनका एक छोटा जीवनवृत्त भी प्रकाशित किया। इस लघु पुस्तिका की दो करोड़ प्रतियां देश भर में वितरित की गईं।
डॉ. आंबेडकर कठिनाइयों से कभी हताश नहीं हुए, वरन् उन्होंने परिस्थितियों का बड़े साहसपूर्वक सामना किया। मैं विद्यार्थियों की युवा पीढ़ी से विशेषत: आग्रह कर रहा हूं कि वे डॉ. आंबेडकर के जीवन से कुछ सीखें। कठिनाई के क्षणों में उनका जीवन बड़ी प्रेरणा दे सकता है।
आंबेडकरजी सन 1913 में स्नातक बने और बड़ौदा के महाराजा सयाजीराव गायकवाड़ से, जो एक राष्ट्रवादी और प्रगतिशील व्यक्ति थे, छात्रवृत्ति पाकर आगे अध्ययन के लिए अमरीका चले गए। सन 1915 में कोलंबिया विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में एम. ए. की उपाधि (डिग्री) प्राप्त करने के पश्चात् उन्होंने पीएच.डी. के लिए शोध-कार्य प्रारंभ किया। उनके शोध का विषय था-ब्रिटिश शासन द्वारा भारत में अपनाई गई अर्थनीति एवं प्रांतीय अर्थव्यवस्था।
सन् 1916 में इंग्लैंड जाकर लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में अर्थशास्त्र से एम.एस.सी तथा बैरिस्टर ऐट लॉ उपाधियों के लिए प्रवेश लिया। परंतु छात्रवृत्ति की अवधि समाप्त हो जाने पर अर्थाभाव के कारण उन्हें भारत लौटना पड़ा।
स्वदेश में उन्हें महाराजा बड़ौदा के सैनिक सचिव के पद पर नियुक्ति मिल गई, किंतु प्रचलित सामाजिक कुप्रथाओं व विकृत मान्यताओं के कारण उन्हें बड़ौदा में कहीं भी रहने के लिए समुचित घर नहीं मिल सका। अनुसूचित जातियों के प्रति इस प्रकार के भेदभावपूर्ण व्यवहार ने उन्हें बहुत विक्षुब्ध कर दिया तथा वे अपने पद से त्याग-पत्र देकर मुंबई चले गए जहां उन्हें एक महाविद्यालय में प्राध्यापक का पद प्राप्त हो गया। उन्होंने अनुसूचित जातियों के लोगों की अनेक सभाएं आयोजित कर उन्हें शिक्षा का महत्व समझाया और सम्मानपूर्वक जीने की प्रेरणा दी।
सन् 1920 में वे अपना अध्ययन पूरा करने के लिए फिर से लंदन चले गए। अर्थशास्त्र में एम.एस-सी और बार ऐट लॉ की उपाधियां प्राप्त करने के पश्चात् उन्होंने 'रुपए की समस्या' पर शोध-प्रबंध किया, जिसमें थोड़े से संशोधन के पश्चात् लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से उन्हें डी.एस-सी की उपाधि प्राप्त हुई। वापस भारत लौटकर डॉ. आंबेडकर ने वकालत का स्वतंत्र व्यवसाय अपनाया और अनुसूचित जातियों का नेतृत्व करने लगे। उन दिनों उनकी आय अधिक नहीं थी, क्योंकि वे अधिकतर दलितों के मुकदमे लड़ते थे जो अधिक शुल्क नहीं दे सकते थे। शीघ्र ही वे बंबई में उनके निर्विवाद प्रवक्ता बन गए। उनका मत था कि अनुसूचित जातियों के नेता उसी वर्ग में से होने चाहिए।
सन् 1930 में डॉ. आंबेडकर लंदन में आयोजित प्रथम गोलमेज सम्मेलन में अनुसूचित जातियों के प्रतिनिधि के रूप में आमंत्रित किए गए। वहां उन्होंने प्रश्न किया कि यदि आप मुसलमानों को पृथक निर्वाचक-मंडल दे सकते हैं तो दलितों को क्यों नहीं? गांधीजी का विचार था कि अनुसूचित जातियां तो हिंदू समाज के अविच्छेद अंग हैं, अत: उनके लिए पृथक निर्वाचक-मंडल का कोई औचित्य नहीं है। यद्यपि डॉ. आंबेडकर हिंदू-मुस्लिम एकता की आवश्यकता के पक्ष में बोलते रहे, तो भी अपने आर्तहृदय से उनका पक्का विश्वास था कि मुसलमानों की कट्टरपंथी अलगाववादी प्रवृत्ति उस एकता में बाधक होगी।
स्वयं डॉ. आंबेडकर को तथा पूरे दलित वर्ग को देश में एक जैसे भेदभाव का सामना करना पड़ता था, उसने उनमें कटुता भर दी थी और इसलिए वे अनुसूचित वर्गों के लिए पृथक् निर्वाचक-मंडल चाहते थे। प्रथम गोलमेज सम्मेलन के असफल हो जाने पर दूसरा सम्मेलन आहूत किया गया। डॉ. आंबेडकर ने उसमें भी पृथक निर्वाचक मंडल का आग्रह किया और अंग्रेज सरकार तत्परता से उस पर सहमत हो गई। गांधीजी को इसमें अंग्रेजों की चाल और हिंदुओं को विभक्त करने का प्रयास दिखाई दिया, अत: उन्होंने इस मांग को छोड़ देने के लिए डॉ. आंबेडकर पर दबाव डालने के उद्देश्य से अनशन प्रारंभ कर दिया। जैसे-जैसे अनशन आगे बढ़ा, वातावरण तनाव में आता गया और गांधीजी का जीवन बचाने के लिए डॉ. आंबेडकर पर भारी दबाव पड़ने लगा। अंत में एक सहमति हुई जिसके अनुसार निर्णय हुआ कि आरक्षित स्थानों के लिए डॉ. आंबेडकर के दल की ओर से खड़े अधिकतर प्रत्याशियों को स्वीकार लिया जाएगा। उसके बाद हुए प्रथम चुनाव में डॉ. आंबेडकर के शिड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन (अनुसूचित जाति संघ) को अधिकांश आरक्षित स्थानों पर विजय प्राप्त हुई।
द्वितीय विश्वयुद्ध के समय डॉ. आंबेडकर ने ब्रिटिश सरकार के साथ सहयोग किया, क्योंकि वे नाजीवाद और फासीवाद के विरुद्ध थे। अनुसूचित जातियों को सरकारी नौकरी दिलाकर लाभान्वित कराने के लिए वे वायसराय की प्रशासनिक परिषद् (एक्जीक्यूटिव कौंसिल) के सदस्य भी बन गए। किंतु इससे वे समाज में इतने अलग-थलग पड़ गए कि सन 1945 के चुनाव में उनके दल को एक भी स्थान नहीं मिला।
फिर आया प्रश्न (स्वतंत्र भारत के) संविधान का प्रारूप तैयार करने का। सरदार पटेल और गांधीजी डॉ. आंबेडकर की क्षमता को समझते थे, अत: उन्होंने न केवल संविधान की प्रारूप समिति (ड्राफ्टिंग कमेटी) को अपितु समूची संविधान-सभा का भी उन्हें एक महत्वपूर्ण सदस्य बनाया। समिति के अधिकांश सदस्य या तो अस्वस्थ हो गए या अवकाश पर चले गए। जिससे संविधान के प्रारूप को आंतिम रूप देने का कठिन कार्य डॉ. आंबेडकर के कंधों पर आ पड़ा। संविधान-निर्माण में उनकी असाधारण भूमिका रही। उनकी विद्वत्त और कठिन परिश्रमशीलता की छाप पूरे देश पर अंकित हुई। वर्षों से मधुमेह के रोग और इस कठिन कार्य ने उनके स्वास्थ्य को तहस-नहस कर दिया।
दलितों के प्रति भेदभावपूर्ण व्यवहार को देखते हुए सन् 1935 में उन्होंने घोषणा की कि मैं जन्मा तो हिंदू के रूप में था, परंतु हिंदू रहकर मरूंगा नहीं। इस घोषणा से देश में बड़ी खलबली मच गई और कहा जाता है कि हैदराबाद के निजाम ने उन्हें दलितों को साथ लेकर इस्लाम में सम्मिलित हो जाने के लिए करोड़ों रुपयों का प्रलोभन दिया। इसी प्रकार ईसाई मिशनरियों ने भी प्रलोभन दिए। किंतु डॉ. आंबेडकर ने उनसे स्पष्ट कह दिया कि उनके मजहब या रिलीजन भारत-भूमि के लिए पराए हैं, इसलिए वे हमसे हमारी संस्कृति को ही छीन लेंगे। सन 1942 के चुनाव में पराजित हो जाने के पश्चात् उन्होंने बौद्ध मत का गहराई से अध्ययन किया। बौद्ध मत की करुणा ने उन्हें विशेष रूप से प्रभावित किया और उन्होंने बौद्ध बन जाने का निश्चय कर लिया। बौद्ध मत ग्रहण करने से पूर्व उन्होंने दलितों को एक विशेष संदेश दिया। उन्होंने कहा-मैं बौद्ध धर्म इसलिए स्वीकार कर रहा हूं कि यह सबकी समानता का वचन देता है और इसी देश की धरती का एक पंथ है, इसलिए यह हमें इस देश की संस्कृति के विरोध में नहीं जाने देगा।
अपनी पुस्तक 'थॉट्स ऑन पाकिस्तान' में उन्होंने स्पष्ट लिखा कि पाकिस्तान अल्पसंख्यकों के साथ अत्यंत क्रूरता करेगा और यदि हम पाकिस्तान बनाया जाना स्वीकार कर लेते हैं तो हमें हिंदू-मुसलमानों की अदला-बदली भी स्वीकार करनी चाहिए।
कम्यूनिज्म के बारे में उनकी मान्यता बिलकुल स्पष्ट थी कि वह स्वतंत्रता और मानवता के विरुद्ध है। संघ के एक वरिष्ठ कार्यकर्ता ने जब उनसे भेंट की तो डॉ. आंबेडकर ने कहा कि 'जैैसे गुरुजी गोलवलकर सवर्ण हिंदुओं और कम्युनिज्म के बीच अवरोधक दीवार हैं, वैसे ही मैं (आंबेडकर) दलितों और कम्युनिज्म के बीच दीवार बनकर खड़ा हूं।' वे पुणे के संघ-शिविर में आए और उसकी देशभक्ति, अनुशासन तथा छुआछूत के पूर्ण अभाव की प्रशंसा की। किंतु उनका कहना था कि मैं शीघ्रता में हूं, क्योंकि (स्वास्थ्य ठीक न रहने के कारण) मेरे पास अब अधिक समय नहीं है और संघ की पद्धति धीरे-धीरे आगे बढ़ने की है। आधुनिक विश्व ने फ्रंासीसी क्रांति में उभरे उद्घोष-स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व का अनुसरण किया। पश्चिम ने स्वतंत्रता पर अधिक बल दिया और बाजार की अर्थव्यवस्था का समर्थक बन गया। इसका परिणाम धनी और निर्धन के बीच बढ़ती खाई के रूप में सामने आया। कम्युनिस्टों ने समानता का आग्रह रखा, परंतु मानवाधिकारों को तिलांजलि दे दी। तीसरे सिद्धांत बंधुत्व पर इनमें से किसी ने भी ध्यान नहीं दिया। डॉ. आंबेडकर के मन में यह बात पूर्णत: स्पष्ट थी कि बंधुत्व भाव को अपनाए बिना शेष दो सिद्धांत निरर्थक हो जाते हैं। वे उपर्युक्त दोनों विचारधाराओं की सीमाओं से परिचित थे।
हम अपने संविधान के शिल्पी का, उनकी विद्वत्ता और परिश्रम का तथा उनकी देशभक्ति और व्यावहारिक दृष्टिकोण का अभिवादन करते हैं, यह तो स्वाभाविक ही था कि वे दलितों का अपमान सहन नहीं कर सके। उनको हिंदू समाज के अन्य वर्गों में परिवर्तन की प्रवृत्ति बहुत धीमी प्रतीत होती थी। आइए, इस अवसर पर हम संकल्प करें कि अपने हिंदू समाज को विकृतियों से मुक्त कर एक ऐसा समाज बनाएंगे जो समरसता आत्मविश्वास और ज्ञान से परिपूर्ण हो, जिससे यह संपूर्ण मानव जाति को महान् ऋषियों का संदेश दे सके।
(फ्रेंड्स ऑफ इंडिया सोसाइटी इंटरनेशनल के तत्वावधान में आयोजित डॉ. भीमराव आंबेडकर के 104वें जन्म दिवस समारोह के अवसर पर उद्बोधन, स्थान-रॉयल नेशनल होटल (मध्य लंदन), दिनांक 14-4-1995. देवेन्द्र स्वरूप एवं डॉ. ब्रजकिशोर शर्मा द्वारा संपादित पुस्तक हमारे रज्जू भैया से साभार।
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