‘हिंदू हो या मुसलमान पिछड़ा-पिछड़ा एक समान’
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पसमांदा आंदोलन के नारे ‘हिंदू हो या मुसलमान पिछड़ा-पिछड़ा एक समान’ से बदलेगी देश की राजनीति
भारतीय लोकतंत्र और पसमांदा मुसलमानों की नुमाइंदगी का प्रश्न अब सतह पर है. अगर लोकतंत्र को पूरी आबादी तक ले जाना है, तो ऐसे सवालों की अनदेखी नहीं की जानी चाहिए.
खालिद अनीस अंसारी 7 May, 2019 11:00 am IST
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प्रतीकात्मक तस्वीर : कॉमन्स
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जाति सिर्फ हिन्दुओं की नहीं, बल्कि पूरे दक्षिण एशिया की बीमारी है. इलाकाई और सांस्कृतिक विभिन्नताओं के बावजूद जाति व्यवस्था इस क्षेत्र में लगभग सारे धार्मिक समूहों में पायी जाती है और ज्ञान, सत्ता, संपत्ति, संसाधन, लैंगिकता, मान-सम्मान के वितरण और संचालन में केन्द्रीय भूमिका निभाती है.
भारतीय मुसलमान भी जातीय विषमता के शिकार हैं और तीन प्रमुख वर्गों और सैकड़ों बिरादरियों में विभाजित हैं. उच्चवर्गीय मुसलमान ‘अशराफ़’ कहलाते हैं जो या तो अपना उद्भव पश्चिम एशिया या सेंट्रल एशिया बताते हैं. (सय्यद, शेख, मुग़ल, पठान इत्यादि) या फिर सवर्ण जातियों से धर्म परिवर्तित हैं (रांगड़ या मुस्लिम राजपूत, तगा या त्यागी मुसलमान, गाढ़े या गौड़ मुसलमान, इत्यादि). सय्यद बिरादरी का दर्जा सबसे ऊपर है और मुसलमानों में वह ब्राह्मणों के समानांतर हैं.
मुसलमानों के अन्दर गैर-बराबरी के दर्शन को सय्यदवाद कहा जाता है और इस दर्शन और अशराफिया वर्चस्व के विरुद्ध ‘अजलाफ़’ (शूद्र या पिछड़े मुसलमान) और ‘अर्जाल’ (दलित मुसलमान) तबकों के सामाजिक आन्दोलन लगभग बीसवीं शताब्दी के आरम्भ से संघर्षरत हैं.
मुसलमानों में जातियों और प्रतिनिधित्व का प्रश्न
मुसलमानों की कुल आबादी का सवर्ण मुसलमान लगभग 15 फीसद और दलित, पिछड़े और आदिवासी मुसलमान 85 फीसद होते हैं. 1990 के दशक में बिहार से डॉ. एजाज़ अली के ‘आल इंडिया बैकवर्ड मुस्लिम मोर्चा’, अली अनवर के ‘आल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज़’ और महाराष्ट्र से शब्बीर अंसारी के ‘आल इंडिया मुस्लिम ओबीसी आर्गेनाईजेशन’ जैसे संगठनों ने मुसलमानों के भीतर जाति विनाश के सामाजिक आंदोलनों को नयी गति दी.
ख़ास तौर पर अली अनवर की किताब मसावात की जंग (2001) और मसूद आलम फलाही की हिंदुस्तान में जात-पात और मुसलमान (2007) ने मुस्लिम समाज के अन्दर व्याप्त जातिगत ऊंच-नीच और भेदभाव का विधिवत तरीक़े से पर्दाफाश किया. इन दोनों किताबों ने यह साबित किया कि इस्लामी संस्थानों/संगठनों (जमीअत-ए-उलेमा-ए-हिन्द, जमात-ए-इस्लामी, आल इण्डिया पर्सनल लॉ बोर्ड, इदार-ए-शरिया, इत्यादि), मुसलमानों के नाम पर चलने वाले सरकारी संस्थान (एएमयू, जामिया मिल्लिया इस्लामिया, मौलाना आजाद एजुकेशनल फाउंडेशन, उर्दू अकादमी, इत्यादि) और शासन-प्रशासन पर अशराफ़ तबके के मुस्लिमों की अपनी आबादी से ज्यादा नुमाइंदगी है. इसके अतिरिक्त यह भी दर्शाया कि मुसलमानों में जातिगत भेदभाव रोटी-बेटी के रिश्तों में, कमज़ोर जातियों का उपहास उड़ाना, विभिन्न जातियों के अलग कब्रिस्तान होना, कुछ मस्जिदों में नमाज़ के दौरान कमज़ोर जातियों को पीछे की सफों में ही खड़े होने के लिए बाध्य करना, दलित मुसलमानों के साथ छुआछूत के प्रचलन, इत्यादि में नज़र आता है.
आज दलित, पिछड़े और आदिवासी मुस्लिम समूह – कुंजड़े (राईन), जुलाहे (अंसारी), धुनिया (मंसूरी), कसाई (कुरैशी), फ़कीर (अलवी), हज्जाम (सलमानी), मेहतर (हलालखोर), ग्वाला (घोसी), धोबी (हवारी), लोहार-बढ़ई (सैफ़ी), मनिहार (सिद्दीकी), दर्जी (इदरीसी), वन्गुज्जर, इत्यादि— ‘पसमांदा’ पहचान के साथ संगठित हो रहे हैं. पसमांदा का अर्थ होता है ‘वह जो पीछे छूट गया.’
सेकुलर बनाम कम्युनल के नाम पर प्रतिनिधित्व की अनदेखी
धार्मिक धुरी पर हो रही राजनीति ब्राह्मणवादी/सय्यदवादी तबकों द्वारा अपने हितो की रक्षा हेतु संचालित होती है. वर्चस्वशाली तबकों द्वारा प्रायोजित कौमी दंगे या मॉब लिंचिंग की घटनाएं बहुजन तबकों को जज्बाती मुद्दों में उलझा कर उनके ठोस सामाजिक और आर्थिक मुद्दों को दरकिनार करती हैं. एक तरह से कहा जाये तो हिन्दू और मुस्लिम साम्प्रदायिकता का चोली-दामन का साथ है और यह एक दूसरे के साथ से फलती-फूलती हैं. लगभग सारी साम्प्रदायिक घटनाओं में ज्यादा नुक्सान पसमांदा-बहुजन तबकों का होता है. दैनिक जीवन में सैकड़ों जातियों में विभाजित आबादी कौमी फ़साद के दौरान रातोंरात ‘हिन्दू’ या ‘मुसलमान’ बन जाती है.
देश की आबादी के असली अल्पसंख्यक- सवर्ण मुसलमान और हिन्दू तबके, धार्मिक धुरी पर आधारित सेक्युलर-कम्युनल या अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक विमर्श के ज़रिये लोकतंत्र पर कब्ज़ा जमाए बैठे हैं. इसलिए पसमांदा आन्दोलन धार्मिक पहचान की जगह सामाजिक पहचान पर बल देता है. पसमांदा नारा ‘दलित-पिछड़ा एक समान, हिन्दू हो या मुसलमान’ धार्मिक एकता के मुकाबले, सारे धर्मों की बहुजन-मूलनिवासी जातियों की एकता पर जोर देता है. डॉ आंबेडकर की तर्ज़ पर अब पसमांदा आन्दोलन किसी महात्मा की राह नहीं देखता बल्कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में नुमाइंदगी और भागीदारी के ज़रिये अपने दुखों का निवारण तलाशता है.
देश की राजनीति में कहां है मुसलमानों की 85 फीसदी पसमांदा आबादी
इस सन्दर्भ में लोकसभा चुनाव 2019 में पसमांदा मुसलमानों की नुमाइंदगी का सवाल उठा है. एक आकलन के हिसाब से पहली से लेकर चौदहवीं लोकसभा तक चुने गए 7,500 प्रतिनिधियों में 400 मुसलमान थे और इन 400 में 340 अशराफ और केवल 60 पसमांदा समाज से थे. अगर भारत में मुसलमानों की आबादी 13.4 फीसद (जनगणना, 2001) है तो अशराफिया आबादी भारत की कुल आबादी की 2.01 फीसद के आसपास होगी. हालांकि, लोकसभा में उनका प्रतिनिधित्व 4.5 प्रतिशत रहा है. जो कि उनकी आबादी प्रतिशत के दोगुने से भी ज्यादा है. वहीं 11.4 फीसद पसमांदा आबादी की नुमाइंदगी केवल 0.8 फीसद रही.
ऐसा प्रतीत होता है कि लगभग यही स्थिति सत्रहवीं लोक सभा में भी बरक़रार रहेगी. उदाहरण के तौर पर बिहार में महागठबंधन के 7 मुस्लिम उम्मीदवारों में सिर्फ 1 पसमांदा है और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के दोनों मुस्लिम उम्मीदवार अशराफ़ हैं. बिहार में अशराफ़ मुसलमानों की आबादी 3-4 फीसद से ज्यादा नहीं होगी. लेकिन महागठबंधन के उम्मीदवारों में उनकी नुमाइंदगी 15 फीसद है. वहीं उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के 9 मुस्लिम उम्मीदवारों में सिर्फ 1 पसमांदा है, बसपा के 6 मुस्लिम उम्मीदवारों में 2 पसमांदा हैं और समाजवादी पार्टी के 4 मुस्लिम उम्मीदवारों में सिर्फ 1 पसमांदा है. भाजपा ने तो पसमांदा मुसलमानों के लिए कोई उम्मीद की वजह ही नहीं छोड़ी. लेकिन सामाजिक न्याय और सेक्युलर पार्टियों ने भी उन्हें टिकट वितरण में निराश ही किया है.
मुसलमानों में जातिभेद पर क्या कहते हैं आंबेडकर, लोहिया, कांशीराम
मान्यवर कांशीराम ने मुस्लिम समाज के अपने अनुभव के बारे में एक बार कहा था: ‘मुसलमानों में मैंने नेतृत्व के स्तर से जाना ठीक समझा. उनके 50 नेताओं से मैं मिला. इनमें भी ब्राह्मणवाद देखकर मैं दंग रह गया. इस्लाम तो बराबरी और अन्याय के खिलाफ लड़ना सिखाता है, लेकिन मुसलमानों का नेत्रत्व शेख़, सय्यद, मुग़ल, पठान यानि अपने को ऊंची जाती का मानने वाले लोगों के हाथ में है, वह यह नहीं चाहते कि अंसारी, धुनिया, कुरैशी उनकी बराबरी में आयें…मैंने फैसला किया कि मुसलमानों में हिंदुओं की अनुसूचित जातियों से गए लोगों को ही तैयार किया जाए.’ (सतनाम सिंह, कांशीराम की नेक कमाई जिसने सोती कौम जगाई, सम्यक प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2007, पेज. 132).
मुस्लिम समाज में व्याप्त जातिवाद के बारे में डॉ बी. आर. आंबेडकर और डॉ राममनोहर लोहिया ने भी खुल कर अपनी राय रखी है. डॉ आंबेडकर लिखते हैं कि ‘…गुलामी भले ही विदा हो गयी हो जाति तो मुसलमानों में कायम है ही’. 1901 सेन्सस रिपोर्ट के आधार पर अर्जाल या दलित मुसलमानों के बारे में वह कहते हैं कि ‘उनके साथ कोई भी मुसलमान मिलेगा-जुलेगा नहीं और न उन्हें मस्जिद और सार्वजनिक कब्रिस्तानों में प्रवेश करने दिया जाता है.’ डॉ. आंबेडकर हिन्दुओं में चलने वाले सामाजिक सुधार आंदोलनों का हवाला देते हुए लिखते हैं कि ‘मुसलमान यह महसूस ही नहीं करते कि ये बुराईयां हैं. परिणामतः वे उनके निवारण हेतु सक्रियता भी नहीं दर्शाते. इसके विपरीत, वे अपनी मौजूदा प्रथाओं में किसी भी परिवर्तन का विरोध करते हैं.’ (बी.आर. आंबेडकर, पाकिस्तान अथवा भारत का विभाजन, सम्यक प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2009, प. 229-233).
वहीं, डॉ राममनोहर लोहिया के अनुसार ‘भारत के राजनीतिकों ने अब तक देश के सचमुच पीड़ित अल्पसंख्यक, यानि हिंदू तथा मुस्लिमों की अनगिनत पिछड़ी जातियों, के हितों की रक्षा करने की चिंता नहीं की. उन्होंने शक्तिशालियों का अल्पसंख्यक के नाम पर हितसाधन किया है, जैसे पारसी, क्रिस्तान, मुसलमान और हिंदुओं में उच्च जाति वालों का’ (Dr. Rammanohar Lohia, Guilty Men of India’s Partition, B. R. Publishing Corporation, 2000, p. 47). अब वाजिब सवाल यह है कि वह राजनीतिक पार्टियां जो आंबेडकर, लोहिया या कांशीराम को अपना आदर्श मानती हैं. वह पसमांदा के प्रतिनिधित्व के प्रश्न से कन्नी काटती हुई क्यों नज़र आती हैं?
जब कहीं से पसमांदा मुसलमान चुनाव लड़ता है तो अशराफ़ उसे धुनिया, जुलाहा, कलाल, कुंजड़ा, कसाई कह के मज़ाक उड़ाते हैं और हराने में कोई कसर नहीं छोड़ते. वहीं, अगर कोई अशराफ़ खड़ा होता है तो उसे जिताना इस्लामी फ़र्ज़ क़रार कर दिया जाता है. अब पसमांदा आंदोलन ने सय्यद्ववाद के खिलाफ मुस्लिम समाज में भी 85 बनाम 15 की जंग छेड़ दी है. अब पसमांदा समाज में सवाब की जगह अधिकार-आत्मसम्मान की राजनीति और दुआ की जगह दवा की बात चल रही है.
हाशिये के समूहों की राजनीति धरती के गर्भ में सैकड़ों वर्षों से धधक रहे ज्वाला की तरह होती है. एक दिन ज्वालामुखी फटता है और बहुत कुछ बदल कर चला जाता है. 1990 के दशक में जब कोई भी उम्मीद नहीं कर रहा था तब बसपा ने पहली दलित मुख्यमंत्री बना कर सबको अचरज में डाल दिया था. पसमांदा आन्दोलन भी अब तमाम धार्मिक समूहों की ओबीसी-दलित जातियों को एक छत के नीचे ला कर व्यापक बहुजनवाद की अवधारणा पर काम कर रहा है. पसमांदा समाज अब सामाजिक न्याय के चक्र को पूरा करने के लिए प्रयासरत है.
(लेखक ग्लोकल यूनिवर्सिटी में लॉ स्कूल में सीनियर असिस्टेंट प्रोफेसर (समाजशास्त्र) और डॉ. आंबेडकर सेंटर फॉर एक्सक्लूशन स्टडीज एंड ट्रांस्फोर्मटिव एक्शन (एसेसटा) के डायरेक्टर हैं.)
At the top of the hierarchy are the Ashrafs, of Arab, Persian, Turkish or Afghan origin, who lay claim to a prestigious lineage that can sometimes be traced back to the Prophet (in the case of Sayyids) or his tribe (in the case of Qureshis) [7], and recognized as such by society. The Shaikhs (descendants of the Prophet’s companions), Pathans (descendants of migrants from Afghanistan), and even Mughals (originating in Central Asia and Iran) can also be included in this group. Many Ashrafs are either ulamas in the case of the Sayyids, or else landowners, merchants or business people. One’s birth group constitutes a major criterion for defining social status, and the distinction between Arabs and non-Arabs remains fundamental; scholars from the Hanafi school of jurisprudence followed by the Shafi’i school [8], approved this principle of differentiation between groups at the turn of the 20th century.
At the middle level, Ajlafs (low-born) represent the masses, whose status is defined by both their profession (pesha) – unlike the Ashrafs – and their identity as descendents of converts to Islam. Many castes of intermediate status fall into this category, such as farmers, traders and weavers (Ansari and Julaha). The latter category is often mentioned in recent textual sources legitimizing the Muslim social order, particularly those written by doctors of the law or theologians (ulemas) who usually belong to the Sayyid caste, or else it is used pejoratively in daily life to indicate the entire Ajlaf caste. Among the social elite, many Ashrafs – still today in rural areas – even believe that this category is not part of the Indian Muslim community (millat) and should remain outside of any emancipation process.
India’s Muslim community under a churn: 85% backward Pasmandas up against 15% Ashrafs
Pasmandas’ slogan of 85% vs 15% against Syedwad is making backward Muslims talk about rights instead of virtue, dawa instead of dua.
KHALID ANIS ANSARI 13 May, 2019 2:48 pm IST
Representational image | Adeel Halim/Bloomberg News
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Caste is a Brahminical disease that not only plagues the Hindu society but the entire South Asia is infected by this social evil. Despite regional and cultural variations, caste is a common feature among all religious communities in this region, and it plays a pivotal role in the distribution and control of knowledge, power, property, resources, sexuality and dignity.
Indian Muslims, too, are victims of caste-based stratification, and are divided into three main classes and hundreds of biradaris. At the top of the hierarchy are the ‘Ashraf’ Muslims who trace their origin either to western or central Asia (for instance Syed, Sheikh, Mughal, Pathan, etc or native upper caste converts like Rangad or Muslim Rajput, Taga or Tyagi Muslims, Garhe or Gaur Muslims, etc). Syed biradari is highly revered and their status is almost symmetrical to the Brahmins in Hinduism.
The philosophy of social inequality within Muslims is termed Syedism, and movements against the Ashraf dominance have been led by the ‘lower’ ones — Ajlaf (backward Muslims) and Arzal (Dalit Muslims)—at least since the beginning of the 20th century.
Caste and representation among Muslims
The savarna Muslims constitute about 15 per cent of the entire Muslim population in India, while the rest comprise the backward, Dalit and tribal Muslims. The 1990s saw the rise of several social movements that gave voice and a new direction to abolish casteism in the Muslim society with several organisations leading from the front — the All India Backward Muslim Morcha of Dr Ejaz Ali, and the All India Pasmanda Muslims Mahaj of Ali Anwar from Bihar, and the All India Muslim OBC Organisation of Shabbir Ansari from Maharashtra.
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Two books – Ali Anwar’s Masawat Ki Jung (2001) and Masood Alam Falahi’s Hindustan Mein Jaat Pat aur Musalman (2007) – were especially instrumental in exposing the caste-based discrimination prevalent in the Muslim society. These books demonstrated how the Ashraf Muslims had hegemonised and were over-represented in Islamic organisations and institutions (Jamat-e-Ulema-e-Hind, Jamat-e-Islami, All India Muslim Personal Law Board, Idaar-e-Sharia etc.), government-run institutions for minorities (Aligarh Muslim University, Jamia Milia Islamia, Maulana Azad Educational Foundation, Urdu Academy etc.) and power structures generally.
The books also illustrate the many layers and forms of caste-based discrimination that is practised in the Muslim society — caste-based endogamy and observation of social distance, the mocking or taunting of subordinate caste Muslims, the existence of separate burial grounds, the practice of forcing lower Muslims to stand in the back rows during Namaz prayers in certain regions, and the practice of untouchability against Dalit Muslims among others.
It is the result of such literature and efforts of the aforementioned organisations that the backward, Dalit and tribal Muslim communities — Kunjre (Raeen), Julahe (Ansari), Dhunia (Mansuri), Kasai (Qureishi), Fakir (Alvi), Hajjam (Salmani), Mehtar (Halalkhor), Gwala (Ghosi), Dhobi (Hawari), Lohar-Badhai (Saifi), Manihar (Siddiqui), Darzi (Idrisi), Vangujjar, etc. — are now organising under the identity of ‘Pasmanda’: the ones who have been left behind.
Secularism vs communalism and neglected Pasmandas
The politics arranged around the axis of religion is often employed by the Brahminical and Syedist forces to protect their own interests and social dominance. Incidents of mob lynching and communal riots are often sponsored and orchestrated by these forces to trap the subordinate caste communities in the web of emotional issues, thereby suppressing the far more pressing issues of the latter’s social and economic upliftment.
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In a way, the Hindu and Muslim communal forces are hand in glove and feed on each other. The victims in nearly all communal incidents are almost always the subordinate castes while the beneficiaries are the forward caste sections. It is somewhat perplexing that a population otherwise divided into hundreds of castes and communities is precipitously transformed into “Hindu” and “Muslim” during communal incidents and riots.
The real numerical minority – the upper caste Hindus and Muslims – has successfully captured Indian democracy by deploying the secular-communal and majority-minority binaries based on religious identity. That is why the Pasmanda movement insists on social identity instead of religious identity. The slogan of Pasmanda movement — Dalit-pichda ek saman, Hindu ho ya Musalman (All Dalit-backwards are alike, whether they be Hindu or Muslim)— emphasises on the unity of Bahujan communities from all religions. Following what Babasaheb Bhim Rao Ambedkar used to exhort, the Pasmanda movement does not wait for any saviour anymore but is instead trying to find the solutions to its miseries through increased representation and participation in the democratic processes.
Indian politics and the missing 85% Pasmandas
Questions are being raised about the representation of Pasmanda Muslims in the 2019 Lok Sabha elections. As per one analysis, of the 7,500 elected representatives from the first to the fourteenth Lok Sabha, 400 were Muslims — of which 340 were from Ashraf (upper caste) community. Only 60 Muslims from the Pasmanda background have been elected in fourteen Lok Sabhas. As per 2011 Census, Muslims constitute about 14.2 per cent of India’s population. This means that Ashrafs would have a 2.1 per cent share in the country’s population. But their representation in the Lok Sabha was around 4.5 per cent. On the other hand, Pasmandas’ share in the population was around 11.4 per cent and still they had a mere 0.8 per cent representation in Parliament.
It appears that the situation will be the same in the 17th Lok Sabha, too. For instance, only one out of seven Mahagathbandhan’s Muslim candidates in Bihar is a Pasmanda and both BJP-led NDA’s candidates are Ashraf. In Bihar, the population of Ashraf community is not more than 4 per cent of the state’s entire population, yet they got 15 per cent representation among the Mahagathbandhan candidates. In Uttar Pradesh, only one of the nine Muslim candidates fielded by the Congress is a Pasmanda. Bahujan Samaj Party has fielded two Pasmanda candidates out of six Muslims and one Pasmanda is fighting on a Samajwadi Party ticket (out of four Muslims). It is true that in the BJP, there seems to be no space for Pasmanda Muslims, but the flag bearers of secular and social justice politics have also disappointed the Pasmanda Muslims.
Ambedkar, Lohia, Kanshi Ram on caste-based discrimination among Muslims
Manyawar Kanshi Ram had once narrated his experience of working with Indian Muslims: “I thought it was better to contact Muslims through their leadership. After meeting about 50 Muslim leaders I was astonished to witness their Brahmanism. Islam teaches us to establish equality and struggle against injustice but the leadership of Muslims is dominated by so-called high castes like Syeds, Sheikhs, Mughals and Pathans. The latter do not want the [subordinated Muslim castes like] Ansaris, Dhuniyas, Qureshis to rise to their levels…I decided to groom only those Muslims who had converted from Hindu SC communities [Pasmanda Muslims] for leadership” (Satnam Singh, Kanshi Ram ki Nek Kamai Jisne Soti Qaum Jagai, Samyak Prakashan, New Delhi, 2007, p. 132). Even Ambedkar and Ram Manohar Lohia have categorically acknowledged casteism within Muslim society.
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Dr Ambedkar opines thus: “Take the caste system. Islam speaks of brotherhood. Everybody infers that Islam must be free from slavery and caste. Regarding slavery nothing needs to be said. It stands abolished now by law…But if slavery has gone, caste among Musalmans has remained…There can thus be no manner of doubt that the Muslim Society in India is afflicted by the same social evils as afflict the Hindu Society”.
On the basis of the Census Report 1901, Dr Ambedkar notes about the Dalit Muslims: “With them no other Mahomedan would associate, and they are forbidden to enter the mosque or to use the public burial ground”. In contrast to the social reform movements to combat caste among the Hindus, Dr Ambedkar feels that: “The Muslims…do not realise that they are evils and consequently do not agitate for their removal. Indeed, they oppose any change in their existing practices” (Dr B. R. Ambedkar, Pakistan or the Partition of India, Kalpaz Publications, Delhi, 1945, pp. 218-223).
In the same vein, Ram Manohar Lohia suggests: “India’s politicians have hitherto not cared to promote the interests of the really oppressed minorities of the country, the numberless backward castes among Hindus as well as Muslims. They have served the cause of the strong on the pretext of their being a minority, the Parsi, the Christians, the high castes among Muslims as also among Hindus” (Dr Ram Manohar Lohia, Guilty Men of India’s Partition, B. R. Publishing Corporation, 2000, Delhi, p. 47). Now a vital question is that why the parties who idolise Ambedkar, Lohia and Kanshi Ram are shying away from the issue of representation for Pasmanda Muslims?
Whenever Pasmanda Muslims try to contest an election, the Ashraf Muslims taunt them as Dhunia, Julaha, Kalal, Kunjra or Kasai. They make all efforts to ensure their defeat. On the other hand, whenever an Ashraf candidate is fielded, voting for him and ensuring his victory is termed as an Islamic responsibility and virtue. Now, the Pasmanda Movement has launched a struggle against Syedism in Islam with “85 per cent versus 15 per cent” slogan. The Pasmanda community is now talking about politics of rights instead of sawab (virtue/piety), and dawa (medicine/healthcare) instead of dua (supplication)..
The politics of marginalised communities is akin to lava burning for centuries below the earth’s surface. When the volcano erupts, it changes the entire landscape. In the 1990s, the BSP gave us our first female Dalit chief minister, which upset all expectations and equations. The Pasmanda movement is now trying to forge a pan-religion unity of OBC-Dalits and expanding the extant notions of Bahujanwad. The Pasmanda community is now working tirelessly towards completing the circle of social justice.
The author is Senior Assistant Professor of Sociology, Glocal Law School, Glocal University. He is also the director of Dr Ambedkar Centre for Exclusion Studies and Transformative Action.
This article has been translated from Hindi. Read the Hindi version here.
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पसमांदा आंदोलन के नारे ‘हिंदू हो या मुसलमान पिछड़ा-पिछड़ा एक समान’ से बदलेगी देश की राजनीति
भारतीय लोकतंत्र और पसमांदा मुसलमानों की नुमाइंदगी का प्रश्न अब सतह पर है. अगर लोकतंत्र को पूरी आबादी तक ले जाना है, तो ऐसे सवालों की अनदेखी नहीं की जानी चाहिए.
खालिद अनीस अंसारी 7 May, 2019 11:00 am IST
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प्रतीकात्मक तस्वीर : कॉमन्स
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जाति सिर्फ हिन्दुओं की नहीं, बल्कि पूरे दक्षिण एशिया की बीमारी है. इलाकाई और सांस्कृतिक विभिन्नताओं के बावजूद जाति व्यवस्था इस क्षेत्र में लगभग सारे धार्मिक समूहों में पायी जाती है और ज्ञान, सत्ता, संपत्ति, संसाधन, लैंगिकता, मान-सम्मान के वितरण और संचालन में केन्द्रीय भूमिका निभाती है.
भारतीय मुसलमान भी जातीय विषमता के शिकार हैं और तीन प्रमुख वर्गों और सैकड़ों बिरादरियों में विभाजित हैं. उच्चवर्गीय मुसलमान ‘अशराफ़’ कहलाते हैं जो या तो अपना उद्भव पश्चिम एशिया या सेंट्रल एशिया बताते हैं. (सय्यद, शेख, मुग़ल, पठान इत्यादि) या फिर सवर्ण जातियों से धर्म परिवर्तित हैं (रांगड़ या मुस्लिम राजपूत, तगा या त्यागी मुसलमान, गाढ़े या गौड़ मुसलमान, इत्यादि). सय्यद बिरादरी का दर्जा सबसे ऊपर है और मुसलमानों में वह ब्राह्मणों के समानांतर हैं.
मुसलमानों के अन्दर गैर-बराबरी के दर्शन को सय्यदवाद कहा जाता है और इस दर्शन और अशराफिया वर्चस्व के विरुद्ध ‘अजलाफ़’ (शूद्र या पिछड़े मुसलमान) और ‘अर्जाल’ (दलित मुसलमान) तबकों के सामाजिक आन्दोलन लगभग बीसवीं शताब्दी के आरम्भ से संघर्षरत हैं.
मुसलमानों में जातियों और प्रतिनिधित्व का प्रश्न
मुसलमानों की कुल आबादी का सवर्ण मुसलमान लगभग 15 फीसद और दलित, पिछड़े और आदिवासी मुसलमान 85 फीसद होते हैं. 1990 के दशक में बिहार से डॉ. एजाज़ अली के ‘आल इंडिया बैकवर्ड मुस्लिम मोर्चा’, अली अनवर के ‘आल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज़’ और महाराष्ट्र से शब्बीर अंसारी के ‘आल इंडिया मुस्लिम ओबीसी आर्गेनाईजेशन’ जैसे संगठनों ने मुसलमानों के भीतर जाति विनाश के सामाजिक आंदोलनों को नयी गति दी.
ख़ास तौर पर अली अनवर की किताब मसावात की जंग (2001) और मसूद आलम फलाही की हिंदुस्तान में जात-पात और मुसलमान (2007) ने मुस्लिम समाज के अन्दर व्याप्त जातिगत ऊंच-नीच और भेदभाव का विधिवत तरीक़े से पर्दाफाश किया. इन दोनों किताबों ने यह साबित किया कि इस्लामी संस्थानों/संगठनों (जमीअत-ए-उलेमा-ए-हिन्द, जमात-ए-इस्लामी, आल इण्डिया पर्सनल लॉ बोर्ड, इदार-ए-शरिया, इत्यादि), मुसलमानों के नाम पर चलने वाले सरकारी संस्थान (एएमयू, जामिया मिल्लिया इस्लामिया, मौलाना आजाद एजुकेशनल फाउंडेशन, उर्दू अकादमी, इत्यादि) और शासन-प्रशासन पर अशराफ़ तबके के मुस्लिमों की अपनी आबादी से ज्यादा नुमाइंदगी है. इसके अतिरिक्त यह भी दर्शाया कि मुसलमानों में जातिगत भेदभाव रोटी-बेटी के रिश्तों में, कमज़ोर जातियों का उपहास उड़ाना, विभिन्न जातियों के अलग कब्रिस्तान होना, कुछ मस्जिदों में नमाज़ के दौरान कमज़ोर जातियों को पीछे की सफों में ही खड़े होने के लिए बाध्य करना, दलित मुसलमानों के साथ छुआछूत के प्रचलन, इत्यादि में नज़र आता है.
आज दलित, पिछड़े और आदिवासी मुस्लिम समूह – कुंजड़े (राईन), जुलाहे (अंसारी), धुनिया (मंसूरी), कसाई (कुरैशी), फ़कीर (अलवी), हज्जाम (सलमानी), मेहतर (हलालखोर), ग्वाला (घोसी), धोबी (हवारी), लोहार-बढ़ई (सैफ़ी), मनिहार (सिद्दीकी), दर्जी (इदरीसी), वन्गुज्जर, इत्यादि— ‘पसमांदा’ पहचान के साथ संगठित हो रहे हैं. पसमांदा का अर्थ होता है ‘वह जो पीछे छूट गया.’
सेकुलर बनाम कम्युनल के नाम पर प्रतिनिधित्व की अनदेखी
धार्मिक धुरी पर हो रही राजनीति ब्राह्मणवादी/सय्यदवादी तबकों द्वारा अपने हितो की रक्षा हेतु संचालित होती है. वर्चस्वशाली तबकों द्वारा प्रायोजित कौमी दंगे या मॉब लिंचिंग की घटनाएं बहुजन तबकों को जज्बाती मुद्दों में उलझा कर उनके ठोस सामाजिक और आर्थिक मुद्दों को दरकिनार करती हैं. एक तरह से कहा जाये तो हिन्दू और मुस्लिम साम्प्रदायिकता का चोली-दामन का साथ है और यह एक दूसरे के साथ से फलती-फूलती हैं. लगभग सारी साम्प्रदायिक घटनाओं में ज्यादा नुक्सान पसमांदा-बहुजन तबकों का होता है. दैनिक जीवन में सैकड़ों जातियों में विभाजित आबादी कौमी फ़साद के दौरान रातोंरात ‘हिन्दू’ या ‘मुसलमान’ बन जाती है.
देश की आबादी के असली अल्पसंख्यक- सवर्ण मुसलमान और हिन्दू तबके, धार्मिक धुरी पर आधारित सेक्युलर-कम्युनल या अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक विमर्श के ज़रिये लोकतंत्र पर कब्ज़ा जमाए बैठे हैं. इसलिए पसमांदा आन्दोलन धार्मिक पहचान की जगह सामाजिक पहचान पर बल देता है. पसमांदा नारा ‘दलित-पिछड़ा एक समान, हिन्दू हो या मुसलमान’ धार्मिक एकता के मुकाबले, सारे धर्मों की बहुजन-मूलनिवासी जातियों की एकता पर जोर देता है. डॉ आंबेडकर की तर्ज़ पर अब पसमांदा आन्दोलन किसी महात्मा की राह नहीं देखता बल्कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में नुमाइंदगी और भागीदारी के ज़रिये अपने दुखों का निवारण तलाशता है.
देश की राजनीति में कहां है मुसलमानों की 85 फीसदी पसमांदा आबादी
इस सन्दर्भ में लोकसभा चुनाव 2019 में पसमांदा मुसलमानों की नुमाइंदगी का सवाल उठा है. एक आकलन के हिसाब से पहली से लेकर चौदहवीं लोकसभा तक चुने गए 7,500 प्रतिनिधियों में 400 मुसलमान थे और इन 400 में 340 अशराफ और केवल 60 पसमांदा समाज से थे. अगर भारत में मुसलमानों की आबादी 13.4 फीसद (जनगणना, 2001) है तो अशराफिया आबादी भारत की कुल आबादी की 2.01 फीसद के आसपास होगी. हालांकि, लोकसभा में उनका प्रतिनिधित्व 4.5 प्रतिशत रहा है. जो कि उनकी आबादी प्रतिशत के दोगुने से भी ज्यादा है. वहीं 11.4 फीसद पसमांदा आबादी की नुमाइंदगी केवल 0.8 फीसद रही.
ऐसा प्रतीत होता है कि लगभग यही स्थिति सत्रहवीं लोक सभा में भी बरक़रार रहेगी. उदाहरण के तौर पर बिहार में महागठबंधन के 7 मुस्लिम उम्मीदवारों में सिर्फ 1 पसमांदा है और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के दोनों मुस्लिम उम्मीदवार अशराफ़ हैं. बिहार में अशराफ़ मुसलमानों की आबादी 3-4 फीसद से ज्यादा नहीं होगी. लेकिन महागठबंधन के उम्मीदवारों में उनकी नुमाइंदगी 15 फीसद है. वहीं उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के 9 मुस्लिम उम्मीदवारों में सिर्फ 1 पसमांदा है, बसपा के 6 मुस्लिम उम्मीदवारों में 2 पसमांदा हैं और समाजवादी पार्टी के 4 मुस्लिम उम्मीदवारों में सिर्फ 1 पसमांदा है. भाजपा ने तो पसमांदा मुसलमानों के लिए कोई उम्मीद की वजह ही नहीं छोड़ी. लेकिन सामाजिक न्याय और सेक्युलर पार्टियों ने भी उन्हें टिकट वितरण में निराश ही किया है.
मुसलमानों में जातिभेद पर क्या कहते हैं आंबेडकर, लोहिया, कांशीराम
मान्यवर कांशीराम ने मुस्लिम समाज के अपने अनुभव के बारे में एक बार कहा था: ‘मुसलमानों में मैंने नेतृत्व के स्तर से जाना ठीक समझा. उनके 50 नेताओं से मैं मिला. इनमें भी ब्राह्मणवाद देखकर मैं दंग रह गया. इस्लाम तो बराबरी और अन्याय के खिलाफ लड़ना सिखाता है, लेकिन मुसलमानों का नेत्रत्व शेख़, सय्यद, मुग़ल, पठान यानि अपने को ऊंची जाती का मानने वाले लोगों के हाथ में है, वह यह नहीं चाहते कि अंसारी, धुनिया, कुरैशी उनकी बराबरी में आयें…मैंने फैसला किया कि मुसलमानों में हिंदुओं की अनुसूचित जातियों से गए लोगों को ही तैयार किया जाए.’ (सतनाम सिंह, कांशीराम की नेक कमाई जिसने सोती कौम जगाई, सम्यक प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2007, पेज. 132).
मुस्लिम समाज में व्याप्त जातिवाद के बारे में डॉ बी. आर. आंबेडकर और डॉ राममनोहर लोहिया ने भी खुल कर अपनी राय रखी है. डॉ आंबेडकर लिखते हैं कि ‘…गुलामी भले ही विदा हो गयी हो जाति तो मुसलमानों में कायम है ही’. 1901 सेन्सस रिपोर्ट के आधार पर अर्जाल या दलित मुसलमानों के बारे में वह कहते हैं कि ‘उनके साथ कोई भी मुसलमान मिलेगा-जुलेगा नहीं और न उन्हें मस्जिद और सार्वजनिक कब्रिस्तानों में प्रवेश करने दिया जाता है.’ डॉ. आंबेडकर हिन्दुओं में चलने वाले सामाजिक सुधार आंदोलनों का हवाला देते हुए लिखते हैं कि ‘मुसलमान यह महसूस ही नहीं करते कि ये बुराईयां हैं. परिणामतः वे उनके निवारण हेतु सक्रियता भी नहीं दर्शाते. इसके विपरीत, वे अपनी मौजूदा प्रथाओं में किसी भी परिवर्तन का विरोध करते हैं.’ (बी.आर. आंबेडकर, पाकिस्तान अथवा भारत का विभाजन, सम्यक प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2009, प. 229-233).
वहीं, डॉ राममनोहर लोहिया के अनुसार ‘भारत के राजनीतिकों ने अब तक देश के सचमुच पीड़ित अल्पसंख्यक, यानि हिंदू तथा मुस्लिमों की अनगिनत पिछड़ी जातियों, के हितों की रक्षा करने की चिंता नहीं की. उन्होंने शक्तिशालियों का अल्पसंख्यक के नाम पर हितसाधन किया है, जैसे पारसी, क्रिस्तान, मुसलमान और हिंदुओं में उच्च जाति वालों का’ (Dr. Rammanohar Lohia, Guilty Men of India’s Partition, B. R. Publishing Corporation, 2000, p. 47). अब वाजिब सवाल यह है कि वह राजनीतिक पार्टियां जो आंबेडकर, लोहिया या कांशीराम को अपना आदर्श मानती हैं. वह पसमांदा के प्रतिनिधित्व के प्रश्न से कन्नी काटती हुई क्यों नज़र आती हैं?
जब कहीं से पसमांदा मुसलमान चुनाव लड़ता है तो अशराफ़ उसे धुनिया, जुलाहा, कलाल, कुंजड़ा, कसाई कह के मज़ाक उड़ाते हैं और हराने में कोई कसर नहीं छोड़ते. वहीं, अगर कोई अशराफ़ खड़ा होता है तो उसे जिताना इस्लामी फ़र्ज़ क़रार कर दिया जाता है. अब पसमांदा आंदोलन ने सय्यद्ववाद के खिलाफ मुस्लिम समाज में भी 85 बनाम 15 की जंग छेड़ दी है. अब पसमांदा समाज में सवाब की जगह अधिकार-आत्मसम्मान की राजनीति और दुआ की जगह दवा की बात चल रही है.
हाशिये के समूहों की राजनीति धरती के गर्भ में सैकड़ों वर्षों से धधक रहे ज्वाला की तरह होती है. एक दिन ज्वालामुखी फटता है और बहुत कुछ बदल कर चला जाता है. 1990 के दशक में जब कोई भी उम्मीद नहीं कर रहा था तब बसपा ने पहली दलित मुख्यमंत्री बना कर सबको अचरज में डाल दिया था. पसमांदा आन्दोलन भी अब तमाम धार्मिक समूहों की ओबीसी-दलित जातियों को एक छत के नीचे ला कर व्यापक बहुजनवाद की अवधारणा पर काम कर रहा है. पसमांदा समाज अब सामाजिक न्याय के चक्र को पूरा करने के लिए प्रयासरत है.
(लेखक ग्लोकल यूनिवर्सिटी में लॉ स्कूल में सीनियर असिस्टेंट प्रोफेसर (समाजशास्त्र) और डॉ. आंबेडकर सेंटर फॉर एक्सक्लूशन स्टडीज एंड ट्रांस्फोर्मटिव एक्शन (एसेसटा) के डायरेक्टर हैं.)
At the top of the hierarchy are the Ashrafs, of Arab, Persian, Turkish or Afghan origin, who lay claim to a prestigious lineage that can sometimes be traced back to the Prophet (in the case of Sayyids) or his tribe (in the case of Qureshis) [7], and recognized as such by society. The Shaikhs (descendants of the Prophet’s companions), Pathans (descendants of migrants from Afghanistan), and even Mughals (originating in Central Asia and Iran) can also be included in this group. Many Ashrafs are either ulamas in the case of the Sayyids, or else landowners, merchants or business people. One’s birth group constitutes a major criterion for defining social status, and the distinction between Arabs and non-Arabs remains fundamental; scholars from the Hanafi school of jurisprudence followed by the Shafi’i school [8], approved this principle of differentiation between groups at the turn of the 20th century.
At the middle level, Ajlafs (low-born) represent the masses, whose status is defined by both their profession (pesha) – unlike the Ashrafs – and their identity as descendents of converts to Islam. Many castes of intermediate status fall into this category, such as farmers, traders and weavers (Ansari and Julaha). The latter category is often mentioned in recent textual sources legitimizing the Muslim social order, particularly those written by doctors of the law or theologians (ulemas) who usually belong to the Sayyid caste, or else it is used pejoratively in daily life to indicate the entire Ajlaf caste. Among the social elite, many Ashrafs – still today in rural areas – even believe that this category is not part of the Indian Muslim community (millat) and should remain outside of any emancipation process.
India’s Muslim community under a churn: 85% backward Pasmandas up against 15% Ashrafs
Pasmandas’ slogan of 85% vs 15% against Syedwad is making backward Muslims talk about rights instead of virtue, dawa instead of dua.
KHALID ANIS ANSARI 13 May, 2019 2:48 pm IST
Representational image | Adeel Halim/Bloomberg News
Representational image | Adeel Halim/Bloomberg News
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Caste is a Brahminical disease that not only plagues the Hindu society but the entire South Asia is infected by this social evil. Despite regional and cultural variations, caste is a common feature among all religious communities in this region, and it plays a pivotal role in the distribution and control of knowledge, power, property, resources, sexuality and dignity.
Indian Muslims, too, are victims of caste-based stratification, and are divided into three main classes and hundreds of biradaris. At the top of the hierarchy are the ‘Ashraf’ Muslims who trace their origin either to western or central Asia (for instance Syed, Sheikh, Mughal, Pathan, etc or native upper caste converts like Rangad or Muslim Rajput, Taga or Tyagi Muslims, Garhe or Gaur Muslims, etc). Syed biradari is highly revered and their status is almost symmetrical to the Brahmins in Hinduism.
The philosophy of social inequality within Muslims is termed Syedism, and movements against the Ashraf dominance have been led by the ‘lower’ ones — Ajlaf (backward Muslims) and Arzal (Dalit Muslims)—at least since the beginning of the 20th century.
Caste and representation among Muslims
The savarna Muslims constitute about 15 per cent of the entire Muslim population in India, while the rest comprise the backward, Dalit and tribal Muslims. The 1990s saw the rise of several social movements that gave voice and a new direction to abolish casteism in the Muslim society with several organisations leading from the front — the All India Backward Muslim Morcha of Dr Ejaz Ali, and the All India Pasmanda Muslims Mahaj of Ali Anwar from Bihar, and the All India Muslim OBC Organisation of Shabbir Ansari from Maharashtra.
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Two books – Ali Anwar’s Masawat Ki Jung (2001) and Masood Alam Falahi’s Hindustan Mein Jaat Pat aur Musalman (2007) – were especially instrumental in exposing the caste-based discrimination prevalent in the Muslim society. These books demonstrated how the Ashraf Muslims had hegemonised and were over-represented in Islamic organisations and institutions (Jamat-e-Ulema-e-Hind, Jamat-e-Islami, All India Muslim Personal Law Board, Idaar-e-Sharia etc.), government-run institutions for minorities (Aligarh Muslim University, Jamia Milia Islamia, Maulana Azad Educational Foundation, Urdu Academy etc.) and power structures generally.
The books also illustrate the many layers and forms of caste-based discrimination that is practised in the Muslim society — caste-based endogamy and observation of social distance, the mocking or taunting of subordinate caste Muslims, the existence of separate burial grounds, the practice of forcing lower Muslims to stand in the back rows during Namaz prayers in certain regions, and the practice of untouchability against Dalit Muslims among others.
It is the result of such literature and efforts of the aforementioned organisations that the backward, Dalit and tribal Muslim communities — Kunjre (Raeen), Julahe (Ansari), Dhunia (Mansuri), Kasai (Qureishi), Fakir (Alvi), Hajjam (Salmani), Mehtar (Halalkhor), Gwala (Ghosi), Dhobi (Hawari), Lohar-Badhai (Saifi), Manihar (Siddiqui), Darzi (Idrisi), Vangujjar, etc. — are now organising under the identity of ‘Pasmanda’: the ones who have been left behind.
Secularism vs communalism and neglected Pasmandas
The politics arranged around the axis of religion is often employed by the Brahminical and Syedist forces to protect their own interests and social dominance. Incidents of mob lynching and communal riots are often sponsored and orchestrated by these forces to trap the subordinate caste communities in the web of emotional issues, thereby suppressing the far more pressing issues of the latter’s social and economic upliftment.
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In a way, the Hindu and Muslim communal forces are hand in glove and feed on each other. The victims in nearly all communal incidents are almost always the subordinate castes while the beneficiaries are the forward caste sections. It is somewhat perplexing that a population otherwise divided into hundreds of castes and communities is precipitously transformed into “Hindu” and “Muslim” during communal incidents and riots.
The real numerical minority – the upper caste Hindus and Muslims – has successfully captured Indian democracy by deploying the secular-communal and majority-minority binaries based on religious identity. That is why the Pasmanda movement insists on social identity instead of religious identity. The slogan of Pasmanda movement — Dalit-pichda ek saman, Hindu ho ya Musalman (All Dalit-backwards are alike, whether they be Hindu or Muslim)— emphasises on the unity of Bahujan communities from all religions. Following what Babasaheb Bhim Rao Ambedkar used to exhort, the Pasmanda movement does not wait for any saviour anymore but is instead trying to find the solutions to its miseries through increased representation and participation in the democratic processes.
Indian politics and the missing 85% Pasmandas
Questions are being raised about the representation of Pasmanda Muslims in the 2019 Lok Sabha elections. As per one analysis, of the 7,500 elected representatives from the first to the fourteenth Lok Sabha, 400 were Muslims — of which 340 were from Ashraf (upper caste) community. Only 60 Muslims from the Pasmanda background have been elected in fourteen Lok Sabhas. As per 2011 Census, Muslims constitute about 14.2 per cent of India’s population. This means that Ashrafs would have a 2.1 per cent share in the country’s population. But their representation in the Lok Sabha was around 4.5 per cent. On the other hand, Pasmandas’ share in the population was around 11.4 per cent and still they had a mere 0.8 per cent representation in Parliament.
It appears that the situation will be the same in the 17th Lok Sabha, too. For instance, only one out of seven Mahagathbandhan’s Muslim candidates in Bihar is a Pasmanda and both BJP-led NDA’s candidates are Ashraf. In Bihar, the population of Ashraf community is not more than 4 per cent of the state’s entire population, yet they got 15 per cent representation among the Mahagathbandhan candidates. In Uttar Pradesh, only one of the nine Muslim candidates fielded by the Congress is a Pasmanda. Bahujan Samaj Party has fielded two Pasmanda candidates out of six Muslims and one Pasmanda is fighting on a Samajwadi Party ticket (out of four Muslims). It is true that in the BJP, there seems to be no space for Pasmanda Muslims, but the flag bearers of secular and social justice politics have also disappointed the Pasmanda Muslims.
Ambedkar, Lohia, Kanshi Ram on caste-based discrimination among Muslims
Manyawar Kanshi Ram had once narrated his experience of working with Indian Muslims: “I thought it was better to contact Muslims through their leadership. After meeting about 50 Muslim leaders I was astonished to witness their Brahmanism. Islam teaches us to establish equality and struggle against injustice but the leadership of Muslims is dominated by so-called high castes like Syeds, Sheikhs, Mughals and Pathans. The latter do not want the [subordinated Muslim castes like] Ansaris, Dhuniyas, Qureshis to rise to their levels…I decided to groom only those Muslims who had converted from Hindu SC communities [Pasmanda Muslims] for leadership” (Satnam Singh, Kanshi Ram ki Nek Kamai Jisne Soti Qaum Jagai, Samyak Prakashan, New Delhi, 2007, p. 132). Even Ambedkar and Ram Manohar Lohia have categorically acknowledged casteism within Muslim society.
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Dr Ambedkar opines thus: “Take the caste system. Islam speaks of brotherhood. Everybody infers that Islam must be free from slavery and caste. Regarding slavery nothing needs to be said. It stands abolished now by law…But if slavery has gone, caste among Musalmans has remained…There can thus be no manner of doubt that the Muslim Society in India is afflicted by the same social evils as afflict the Hindu Society”.
On the basis of the Census Report 1901, Dr Ambedkar notes about the Dalit Muslims: “With them no other Mahomedan would associate, and they are forbidden to enter the mosque or to use the public burial ground”. In contrast to the social reform movements to combat caste among the Hindus, Dr Ambedkar feels that: “The Muslims…do not realise that they are evils and consequently do not agitate for their removal. Indeed, they oppose any change in their existing practices” (Dr B. R. Ambedkar, Pakistan or the Partition of India, Kalpaz Publications, Delhi, 1945, pp. 218-223).
In the same vein, Ram Manohar Lohia suggests: “India’s politicians have hitherto not cared to promote the interests of the really oppressed minorities of the country, the numberless backward castes among Hindus as well as Muslims. They have served the cause of the strong on the pretext of their being a minority, the Parsi, the Christians, the high castes among Muslims as also among Hindus” (Dr Ram Manohar Lohia, Guilty Men of India’s Partition, B. R. Publishing Corporation, 2000, Delhi, p. 47). Now a vital question is that why the parties who idolise Ambedkar, Lohia and Kanshi Ram are shying away from the issue of representation for Pasmanda Muslims?
Whenever Pasmanda Muslims try to contest an election, the Ashraf Muslims taunt them as Dhunia, Julaha, Kalal, Kunjra or Kasai. They make all efforts to ensure their defeat. On the other hand, whenever an Ashraf candidate is fielded, voting for him and ensuring his victory is termed as an Islamic responsibility and virtue. Now, the Pasmanda Movement has launched a struggle against Syedism in Islam with “85 per cent versus 15 per cent” slogan. The Pasmanda community is now talking about politics of rights instead of sawab (virtue/piety), and dawa (medicine/healthcare) instead of dua (supplication)..
The politics of marginalised communities is akin to lava burning for centuries below the earth’s surface. When the volcano erupts, it changes the entire landscape. In the 1990s, the BSP gave us our first female Dalit chief minister, which upset all expectations and equations. The Pasmanda movement is now trying to forge a pan-religion unity of OBC-Dalits and expanding the extant notions of Bahujanwad. The Pasmanda community is now working tirelessly towards completing the circle of social justice.
The author is Senior Assistant Professor of Sociology, Glocal Law School, Glocal University. He is also the director of Dr Ambedkar Centre for Exclusion Studies and Transformative Action.
This article has been translated from Hindi. Read the Hindi version here.
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